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०४ दिसंबर, २०२३
पटना (बिहार)। नित नवीन होते वैश्विक समाज में राष्ट्रों को ऐसी-ऐसी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिससे उनका अस्तित्व नष्ट हो रहा है। ऐसी स्थिति में वर्ल्ड सोशल फोरम एक ऐसे मंच के रूप में उभरा है, जहां दुनिया भर के नागरिक समाज मौजूदा संकट का सर्वमान्य समाधान खोजने के लिए एक साथ इकट्ठा हो रहे हैं। यह दुनिया भर में जन आंदोलनों और नागरिक समाज संगठनों की सामूहिक शक्ति को विकसित करने, नवउदारवाद, जलवायु संकट, युद्धों और संपूर्ण मानव सभ्यता के विनाश की ओर ले जाने वाली अप्रत्याशित घटनाओं को एकीकृत कर एक-दूसरे से संबद्ध देखने मंच और प्रक्रिया है। यह न्याय, शांति, प्रकृति और हमारे ग्रह की सुरक्षा के लिए गठबंधन है और सामंजस्यपूर्ण समाज बनाने का एक मंच है। इंडिया सोशल फोरम इसी वर्ल्ड सोशल फोरम की गतिविधियों से अपनी प्रेरणा लेता है।
भारत में प्रमुख तिब्बत समर्थक समूह अर्थात् भारत-तिब्बत मैत्री संघ (आईटीएफएस) ने इस कार्यक्रम में भाग लिया है और पटना में इंडिया सोशल फोरम में ‘तिब्बत मुक्ति साधना’ के पक्ष में अभियान चलाया। इंडिया सोशल फोरम ०२ से ०४ दिसंबर २०२३ तक बिहार विद्यापीठ में आयोजित किया गया। इस विद्यापीठ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुत ऐतिहासिक महत्व है। महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के दौरान स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार का नारा दिया गया। इसके साथ ही बहिष्कार करने वाले छात्रों के लिए विद्यापीठ शिक्षा के माध्यम से एक वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली शुरू की गई थी। बिहार विद्यापीठ एक ऐसा ही संस्थान था, जहां छात्र भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने के लिए शामिल होते थे। इस आयोजन में तिब्बत का स्टाल लगाया गया और प्रतिभागियों के बीच तिब्बत से संबंधित पुस्तकें वितरित की गईं। इस अभियान में भारत-तिब्बत मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री सुरेंद्र कुमार, बिहार प्रदेश उपाध्यक्ष प्रमोद कुमार शर्मा, सलाहकार चंद्र भूषण, राकेश ठाकुर, श्री वी.एन. उपाध्याय, डॉ. ब्रजेश कुमार शर्मा, डॉ. अरुण कुमार शर्मा, श्री प्रभात कुमार, श्री रंजीत कुमार, श्री विनय प्रशांत, श्री प्रशांत गौतम और अन्य सदस्यों ने सक्रिय रूप से भाग लिया और प्रतिभागियों को तिब्बत के बारे में समझाया। यह भी बताया गया कि तिब्बत मुक्ति साधना क्या है और तिब्बत की मुक्ति भारत के लिए क्यों मायने रखती है।
फोरम के दौरान ही ०३ दिसंबर २०२३ को भारत-तिब्बत मैत्री संघ द्वारा एक सेमिनार आयोजित किया गया। पूर्व संसद सदस्य एवं राजस्थान के लाडनूं स्थित जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. रामजी सिंह ने इस बैठक की शोभा बढ़ाई। आईटीएफएस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री सुरेंद्र कुमार ने इस सेमिनार में आए अतिथियों एवं सदस्यों का स्वागत किया।
आईटीएफएस-सीतामढ़ी, बिहार के डॉ. ब्रजेश कुमार शर्मा ने १९५९ में चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश डाला। उस समय कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत पर बलपूर्वक कब्जा कर लिए जाने पर लाखों तिब्बतियों की हत्या के बाद परम पावन १४वें दलाई लामा को ८५,००० से अधिक तिब्बतियों साथ भारत में शरण लेनी पड़ी थी। उन्होंने बताया कि चीन पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता, खासकर १९६२, गलवान और अरुणाचल सीमा पर कम्युनिस्ट चीन द्वारा पैदा की गई शत्रुता के बाद। उन्होंने भारतीय सांसदों से संसद भवन में परम पावन दलाई लामा का स्वागत करने और उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने के लिए अभियान चलाने का अनुरोध किया।
डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा ने कहा कि तिब्बत मुक्ति साधना को बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित के लिए भारतीयों को चार प्रमुख जिम्मेदारियां उठानी चाहिए। पहली, जहां भी संभव हो तिब्बत मुद्दे को उठाएं, दूसरा लगातार मीडिया कर्मियों से जुड़े रहें और तिब्बत के मुद्दों से उन्हें लगातार अवगत कराते रहें, तीसरा अपने से संबंधित सांसदों से अनुरोध करें कि वे भारतीय संसद में तिब्बत के मुद्दों को उठाएं और चौथा हमेशा तिब्बत के शांतिपूर्ण समाधान पर ध्यान केंद्रित करते रहें।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति मनोज कुमार ने संयुक्त राष्ट्र के तहत वैश्विक संगठनों के कमजोर पड़ने और दुनिया भर में होने वाली त्रासदियों का सर्वमान्य समाधान खोजने में उनकी असमर्थता पर अपनी चिंता व्यक्त की।
उन्होंने कहा, ‘चाहे वह यूक्रेन युद्ध का मामला हो या इजरायल-फलस्तीनी संघर्ष का, दुनिया को एकजुट होकर स्थायी और शांतिपूर्ण समाधान निकालना होगा।’ उन्होंने आगे भारत और तिब्बत के बीच सदियों पुराने ऐतिहासिक संबंधों के बारे में बात की, जो चीनी कब्जे के बाद खराब हो गए। इससे भारत को खासकर सीमा संघर्ष और तिब्बत से निकलकर एशिया उपमहाद्वीप में बहने वाली प्रमुख नदियों के जल को चीन द्वारा प्रदूषित करने के कारण भारी नुकसान हुआ है।
वी. एन. उपाध्याय ने तिब्बती मुद्दे के समर्थन में भारत के लिए भू-राजनीतिक और पर्यावरणीय महत्व को रेखांकित किया। डॉ. उपाध्याय ने अनुमानित १० लाख तिब्बती बच्चों को उनके परिवारों से अलग कर जबरन चीनी आवासीय स्कूलों में दाखिला लेने की कुख्यात चीनी नीति पर प्रकाश डाला। यह तिब्बती पहचान को कमजोर करने और तिब्बतियों को बहुसंख्यक चीनी संस्कृति में विलय करने की चीन की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।
डॉ. रामजी सिंह ने निर्दिष्ट किया कि तिब्बत के मुद्दे को हल करने के लिए भारतीय राजनीतिक दलों को दलीय भावना से ऊपर उठकर एक एकीकृत ‘एक भारत, एक दृष्टि’ का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्होंने भारतीय जनता से तिब्बती समुदायों से जुड़ने और भारत-तिब्बत संबंधों को मजबूत करने का अनुरोध किया।
भारत-तिब्बत समन्वय कार्यालय के कार्यवाहक समन्वयक तेनज़िन जॉर्डन ने तिब्बत में कम्युनिस्ट शासन के दौरान तिब्बतियों द्वारा सामना की जाने वाली गंभीर स्थितियों के बारे में बताया और तिब्बत मुक्ति साधना को लगातार समर्थन देने के लिए भारत सरकार और भारत में तिब्बत समर्थक समूहों के प्रति आभार व्यक्त किया।
श्री सुरेंद्र कुमार भारतीय मित्रों को १४ नवंबर १९६२ को भारत की संसद द्वारा चीन के खिलाफ पारित १९६२ के भारतीय संसद के प्रस्ताव की याद दिलाई। चीन-भारत युद्ध के बाद अपनाए गए इस सर्वसम्मत प्रस्ताव में चीनियों द्वारा कब्जा किए गए क्षेत्र को आखिरी इंच तक वापस पाने का वादा किया गया था।
उन्होंने बताया कि भारत की चीन के प्रति सद्भावना और मित्रता पंचशील सिद्धांत पर आधारित थी। लेकिन चीन ने इस पंचशील नीति के साथ विश्वासघात किया है। पंचशील संधि में एक- दूसरे देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के प्रति आपसी सम्मान, एक-दूसरे पर आक्रमण न करना, एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, समानता के आधार पर पारस्परिक लाभ उठाना और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत हैं। चीन ने १९६२ में इसका उल्लंघन किया और भारत पर बड़े पैमाने पर आक्रमण कर दिया।