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चीन, तिब्बत और इतिहास का सच

April 25, 2014

अरूण सिंह

यदि किसी दिन तिब्‍बत हमेशा के लिए चीनियों का क्षेत्र बन गया तो यह केवल तिब्‍बत का अंत नही होगा बल्कि भारत के लिए भी एक स्‍थायी खतरा बन जायेगा़– दलाई लामा

पिछले दिनों चीन ने तिब्‍बत में दुनिया के सबसे उँचे रेलमार्ग का निर्माण कर न केवल तिब्‍बत पर अपनी पकड. मजबूत कर ली है बल्कि  इससे उसे वहाँ के खनिजो के दोहन का भरपूर अवसर भी मिलेगा। इससे चीन की सामरिक शक्ति में उल्‍लेखनीय वृद्वि होगी जो भारत के लिए चिन्‍ता की बात होनी चाहिए।

तिब्‍बत जैसा शांतिप्रिय देश आज चीन के सैन्‍यीकरण का मुख्‍य अडडा  बन चुका है। जिस देश को दुनिया की उजली स्‍वच्‍छ और सफेद छत माना जाता था, आज वह आणविक अस्‍त्रों का रेडियोधर्मी कचरा फेंकने का कूड़ा दान बन गया है। इसके कारण धीरे- धीरे उन सब नदियों का जल भयानक रूप से दूषित हो गया है, जिनका उदगम स्‍थल तिब्‍बत है। ये नदियाँ आक्‍सस, सिन्‍धु, ब्रहमपुत्र, इरावदी आदि‍ दक्षिणी एशिया के अनेक देशों में बहती है, जिनमें भारत और बांग्‍लादेश जैसे घनी आबादी वाले देश भी हैं। सबसे चिंता की बात यह है कि न केवल चीन, बल्कि अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों ने भी चीन को विदेशी मुद्रा देकर यह छूट हासिल कर ली है कि वे तिब्‍बत में अपना आणविक रेडियों कचरा फेंक सकें। कहा जाता है कि जब चीन ने भारत सरकार को 1950 में सूचित किया कि उन्‍होने तिब्‍बत को मुक्‍त करा लिया है, तो नेहरू ने पूछा था- ‘मुक्‍त किया- मगर किससे ? ‘ चीन का  दावा रहा है कि तिब्‍बत उसका हिस्‍सा रहा है, किन्‍तु अगर  हम अतीत में लौटते हैं तो कई रोचक जानकारियां सामने आती हैं । तिब्‍बत और चीनी लोगों का संबंध दो हजार वर्षों से भी ज्‍यादा का रहा है।

आम लोगों को शायद यह जानकारी नहीं होगी कि तिब्‍बत का एक विशाल साम्राज्‍य हुआ करता था, जो सातवीं सदी में विकसित हुआ था । उन दिनों सोंगत्सेन  गैम्‍पों तिब्‍बत का शासक था। यह साम्राज्‍य उत्‍तर में तुर्किस्‍तान, पश्चिम में मध्‍य एशिया तक फैला था। सन 763 ईसवी में तिब्‍बतियों ने चीन की तत्‍कालीन राजधानी चांग आन  (सियान)  को अपने अधीन कर लिया था। ढाई सौ वर्षो तक यही स्थिति बनी रही थी। दसवीं सदी में तिब्‍बत साम्राज्‍य का पतन हो गया। अगले तीन सौ वर्षो तक दोनो देशों के बीच सम्बन्ध न के बराबर रहे।

चीनियों का यह दावा कि तिब्‍बत हमेशा चीन का हिस्‍सा रहा है, यह निष्‍कर्ष उन थोड़े वर्षो से निकाला गया है जब दोनो देश मंगोल साम्राज्‍य का हिस्‍सा रहे थे। बारहवीं सदी में मंगोलो ने अपने साम्राज्‍य का विस्‍तार किया था। 1207 ईसवी में तिब्‍बत ने आत्‍मसमर्पण कर दिया। चीनियो को उन्‍होने 1280 ईस्‍वी के आसपास अपने अधीन किया। सिर्फ यही एक समय था, जब तिब्‍बत और चीन एक साथ मंगोल साम्राज्‍य का हिस्‍सा रहे थें।

अब अगर चीन इस आधार पर तिब्‍बत पर अपने अधिकार का दावा करता है तो क्‍या भारत को भी इसी नाते म्यंमार, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और हांगकांग पर अपना दावा करना चाहिए क्योंकि ये सभी कभी ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे थे? तिब्‍बत ने सन 1358 ईसवी में मंगोलों से अपने को मुक्‍त करा लिया। वहाँ फागमो द्रूपा वंश ने शासन की बागडोर संभाली। इसके दस वर्षो के बाद चीन ने भी मंगोलों को अपने यहां से निकाल बाहर किया। तब वहाँ मिंग वंश की स्‍थापना हुई।

सन 1720 ईसवी में सम्राट कांग सी ने तिब्‍बत में हस्‍तक्षेप किया था। यह करीब दौ सौ वर्षो तक रहा। इन्‍हीं दिनों चीन ने अपनी सैन्‍य शक्ति तथा राजनीतिक कुशलता का प्रयोग करते हुए पूर्वी तिब्‍बत के खाम और आमदो राज्‍यो को आंशिक रूप से नियंत्रित कर लिया था। किन्‍तु सन 1865 ईसवी आते-आते तिब्‍बत ने इनमें से अधिकांश हिस्‍सों को फिर से अपने नियंत्रण में ले लिया। सन 1911- 12 ईसवी में चीनियो ने एक बार फिर थोड़े समय के लिए तिब्‍बत पर अपना अधिकार जमा लिया। किन्‍तु तिब्‍बतियों ने उन्‍हें एक बार फिर निकाल बाहर किया।

तिब्‍बतियों की उत्‍पति के बारे में प्रमाणिक रूप से कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। किन्‍तु जैसा कि एच०ई० रिचर्डसन कहते है उन्‍हें निश्चित  रूप से चीनी नहीं कहा जा सकता है और वास्‍तव में चीनी भी दो हजार वर्षो से भी ज्‍यादा समय से उन्‍हें एक भिन्‍न नस्‍ल के रूप में देखते रहे है। (ए हिस्‍ट्री ऑफ तिब्‍बत)। तिब्‍बती पूर्व मघ्‍य एशिया के घूमंतू गैर चीनी चियांग समुदाय के वंशज हो सकते हैं या सम्‍भव है कि वे प्राचीन यूरल नदी और अल्‍ताई पर्वत श्रेणी के हों। इनकी भाषा शैली भी भिन्‍न हैं। तिब्‍बत भाषा तिब्‍बती-बर्मीज वर्ग के है जो कि सिनो थाई वर्ग से एकदम अलग है।

तिब्‍बती भाषा में चित्राक्षर नही होते है। वे वर्णानुक्रम (क्रमवार) लिखे होते है। उसमें अनेक अक्षर होते है जो आवरण द्वारा ढंके होते है। उनकी संरचना और शब्‍द संस्‍कृत से लिए गए है। ये एकाक्षरी होते है। जिन्‍होंने इन दोनों ऐतिहासिक भाषाओ का विश्‍लेषण किया है, वे इन अन्‍तरों को आसानी से समझ सकते है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि दोनो भाषाओं का स्‍त्रोत एक ही है, गलत होगा।

तिब्‍बती समाज मूल रूप से यायावर प्रकृति का रहा है। घीरे-धीरे उनका विकास एक ऐसे समुदाय के रूप में हुआ जहां भूमि तो राज्‍य की थी, किन्‍तु वे सम्‍पति के रूप में सरकार, मठों और अभिजात वर्गो के पास थी। काश्‍तकार किसान भूस्‍वामियों को कर देते थे। इसके अतिरिक्‍त भी जीवन शैलियां थी। घूमंतू लोग, व्‍यापारी, अर्धघूमंतू किसान तथा शिल्‍पकार। खाम तथा आमदो राज्‍यों में बड़ी-बड़ी सम्‍पतियां थीं। किसानों के पास बड़े-बड़े खेत थे। लोगों के पास अपनी जमीन भी थी जिसका कर वे सीधे राज्‍य को देते थे।

तिब्‍बत में बौद्वधर्म की स्‍थापना का श्रेय सातवीं सदी में तत्‍कालीन शासक सोंगत्सेन गैम्‍पो को जाता है। बौद्व धर्म भारत से स्‍वातवैली के रास्‍ते तिब्‍बत पहुचा। तिब्‍बतियों ने इन्‍ही दिनों भारत से बौद्व धर्म से संबंधित बहुत सारी पांडुलिपियां मंगवाई। चीनी अक्‍सर कहते हैं कि बौद्वधर्म चीन के द्वारा तिब्‍बत पहुचा। वे इस बात का उदाहरण देते हैं कि गैम्‍पो की चीनी पत्‍नी अपने साथ बुद्व की प्रतिमा लेकर गई थी। किन्‍तु वे यह कहना भूल जाते हैं कि चीनी राजकुमारी विजेता तिब्‍बत को उपहार स्‍वरूप ही गई थी। वे यह भी कहना नही चाहतें हैं कि नेपाली राजकुमारी तिब्‍बती शासक से पहले ब्‍याही गई थी। और वही अपने साथ बुद्व की प्रतिमा लेकर गई थी।

चीनि‍यों के आने के पहले 1950 ईसवी तक पूरे तिब्‍बत में 6 हजार मठ और मंदिर थे जिनमें करीब 6 लाख भिक्षु निवास करते थे। 1979 ईसवी में एक सर्वेक्षण में पाया गया कि उनमें से अधिकाशं भिक्षु और भिक्षुणियां या तो मार दिए गये या वे लापता हो गये हैं। उस वक्‍त केवल 60 मठ बचे रह गये थे। उनमें से भी अधिकांश नष्‍ट होने के कगार पर थे। चीनियों ने जानबुझकर योजनाबद्व तरीके से मठों और मंदिरों को डायनामाइटों के विस्‍फोट से नष्‍ट कर दिया। किन्‍तु इसके पहले उनके लोगों ने मठों से बेशकीमती धार्मिक महत्‍व की कलाकृतियों, प्राचीन दुर्लभ पाण्‍डुलिपियों, प्राचीन मूर्तियों एवं अमूल्‍य प्राचीन थंका चित्रों को वहां से निकालकर अन्‍तरराष्‍ट्रीय बाजार में अरबों डालर में बेच डाला।

चीन तिब्‍बत के जंगलों में अंधाधुध कटाई कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार तिब्‍बत के सतर प्रतिशत जंगल काटे जा चुके है। इनसे चीन को अरबों डालर मिले है। इसके बावजूद चीन नये पेड़ों को उगाने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है। चीनि‍यो ने तिब्‍बत के सदियों से चली आ रही सुव्‍यवस्थित कृषि प्रणाली को ही घ्‍वस्‍त कर दिया है। फलस्‍वरूप लगभग तीन लाख तिब्‍बती भूख से मर गये। चीनि‍यों ने तिब्‍बत के लोप नोर इलाके में बड़े पैमाने पर आणविक परीक्षण किये है। वहां रहने वाले लोगों को उसने जबरन विस्‍थापित किया।

यह जानना रोचक होगा कि तिब्‍बत का चीनी में अर्थ ही होता है ‘पश्चिम का खजाना’ । तिब्‍बत की आपार प्राकृतिक सम्‍पदा को देखकर अगर चीन की गिद्व दृष्टि उसकी ओर लगी है तो कोई आश्‍चर्य नही है। 1985 ईसवी में चीनि‍यों ने तिब्‍बत के प्राकृतिक सम्‍पदा के मूल्‍यांकन का प्रयास किया था। तब उसकी सम्‍पदा खरबों डालर आकीं गई थी। उस पर भी यह माना  गया कि पूरी सम्‍पदा का सही-सही मूल्‍यांकन नही हो पाया है। यह उससे भी कही ज्‍यादा है। तिब्‍बत में पायी जानेवाली खनिज सम्‍पदा में एस्‍बेस्‍टस, बोरेक्‍स, क्रोमियम, कोबाल्‍ट, कोयला, तांबा, हीरा, सोना, ग्रेफाइट, लोहा के अयस्‍क, जेड पत्‍थर, र्लाड, मैग्‍नीशियम, पारा, निकल, प्राकृतिक गैस, तेल, आयोडिन, रेडियम, पेट्रोलियम, चाँदी, टगस्‍टन, टिटानियम, सूरेनियम और जस्‍ता इत्‍यादि प्रमुख है। इसके अतिरिक्‍त उत्‍तरी तिब्‍बत में घंटा कास्‍य प्रचुर मात्रा में है। से सारे खनिज धरोहर पूरी दुनिया के ज्ञात स्‍त्रोतों से प्राप्‍त होंने वाले खनिजो की मात्रा से पचास प्रतिशत से भी ज्‍यादा होंगे।

तिब्‍बत को हथिया लेने के बाद चीन को एक और महत्‍वपूर्ण उपलब्धि उसकी आपार जलराशि‍ के रूप में मिली है। एशिया की बड़ी नदियों का उदगम स्‍थल तिब्‍बत ही है। इंडस, बंहपुत्र, मेकांग, सलवीन, यांग्‍त्‍से कश्‍मीर में बहने वाली सतलज और सिंधु का उदगम स्‍थल तिब्‍बत ही है। इसमें कोई शक नही कि तिब्‍बत समूचे एशिया में आपार जलराशि का स्‍वामी है। इनसे करोड़ो किलोवाट की उर्जा पैदा की जा सकती है। और चीनी यही कर रहे हैं। इसकी भी पूरी संभावना है कि  हाइड्रोलिक प्रोजेक्‍ट के जो गंभीर परिणाम होगें, उसे तिब्‍बत और भारत दोनो को भुगतने होगें।

चीन की औद्वोगिक प्रगति और भौतिक संपन्‍नता की चर्चा आज पूरी दुनि‍या में हो रही है। किन्‍तु शायद लोग यह भूल जाते है कि वह किस मूल्‍य पर और किसके लहू-प्राणों पर अर्जित की हुई प्रगति और संपन्‍नता है।

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