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‘चीन पर कांग्रेस के कार्यकारी आयोग’ ने तिब्बत मुद्दे को लेकर सुनवाई की

June 24, 2022

चीन पर कांग्रेस के कार्यकारी आयोग द्वारा तिब्बत मुद्दे की सुनवाई।

tibet.net

धर्मशाला। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा विधायी जनादेश से गठित ‘चीन पर कांग्रेस-कार्यकारी आयोग’ ने चीन में मानवाधिकारों की निगरानी और कानून के शासन के विकास को लेकर ‘तिब्बत: एक अनसुलझे संघर्ष को सुलझाने में आ रही बाधाएं’ विषय पर सुनवाई की। आयोग की सुनवाई का मकसद संवाद की बहाली में आनेवाली बाधाओं को दूर करना है। इस संवाद की बहाली से तिब्बती लोगों की मानव अधिकारों की आकांक्षाएं पूरी हो सकती हैं और धर्म, संस्कृति और भाषा पर लगाए गए प्रतिबंधों को समाप्त हो सकती हैं। संवाद बहाली की यह कोशिश तिब्बत और चीनी कम्‍युनिस्‍ट शासन के बीच संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की परम पावन दलाई लामा की इच्छा को रेखांकित करती है। सुनवाई के दौरान तिब्बती इतिहास और अंतरराष्ट्रीय कानून के पहलुओं पर भी चर्चा की गई और इस बात पर भी चर्चाहुई कि अमेरिकी नीति कैसे इस लक्ष्य का समर्थन कर सकती है।

सीनेटर जेफ मर्कले और सीनेटर जिम मैकगवर्न की अध्यक्षता में चली सुनवाई के दौरान क्रेधा के कार्यकारी अध्यक्ष प्रोफेसर माइकल वैन वॉल्ट वैन प्राग, हांगकांग के सिटी यूनिवर्सिटी में सेवानिवृत्त चेयर प्रोफेसर मान-शियांग लाउ, पूर्व सीटीए अधिकारी और उत्तरी अमेरिका में परम पावन दलाई लामा के प्रतिनिधि कालोन त्रिसुर तेनज़िन नामग्याल टेथोंग और अमेरिकन पर्पस में योगदान संपादक एलेन बोर्क अपनी गवाही दीं।

सीनेटर मर्कले की तिब्बत के अंदर चीन की प्रतिबंधात्मक और जोड़-तोड़ वाली नीतियों पर संक्षिप्त टिप्पणी के बादसीनेटर जिम मैकगवर्न ने चीन-तिब्बत वार्ता को फिर से शुरू करने में अमेरिकी सरकार की रुचि व्यक्त करते हुए तिब्बत की स्थिति को प्रमुखता दिलाने में अमेरिकी कांग्रेस के योगदान और पहलों के बारे में बताया। उन्‍होंने कहा,‘अमेरिकी सरकार लगातार चीन से बिना किसी पूर्व शर्त के बातचीत फि‍र से शुरू करने का आह्वान करती रही है। लेकिन यह काम नहीं किया गया है। १२ साल से तिब्बती तैयार हैं, अमेरिका पूछ रहा हैलेकिन चीनियों ने मुंह मोड़ रहे हैं।

प्रोफेसर माइकल वैन वॉल्ट वैन प्राग ने अपने दस वर्षों के सहयोगात्मक शोध के निष्कर्षों के आधार पर अपनी गवाही प्रस्तुत की, जिसमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से तिब्‍बत को चीन के अभिन्‍न अंग के रूप में दी गई मान्‍यता को वापस लेने की अपील की गई। उन्‍होंने कहा कि ‘इस मान्‍यता की वजह से पीआरसी तिब्बतियोंके साथ बातचीत करने की इच्‍छाशक्ति नहीं दिखाता है, साथ ही यह ति‍ब्‍बत के लाभ लेने के मुख्य स्रोत को कम कर देती है।‘ उन्होंने आगे कहा कि इसी मान्‍यता के कारण तिब्‍बत को लेकर अंतरराष्ट्रीय निगरानी और वहां अमानवीय दुर्व्‍यवहार के लिए बीजिंग को जिम्‍मेदार ठहराने की शक्ति को सीमित कर दिया है क्योंकि इस मान्‍यता के कारण ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय तिब्बत को चीन के आंतरिक मुद्दे के रूप में मानने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि इसके विपरीत ‘हमारा शोध दृढ़ता से इस तथ्‍य को स्थापित करता है कि तिब्‍बत वि‍भिन्‍न कालखंडों में मंगोल, मांचू और यहां तक ​​​​कि ब्रिटिश अधिकार या प्रभाव में कम या ज्‍यादा रहा है, लेकिन इतना तय है कि यह कभी भी चीन का हिस्‍सा नहीं था। हालांकि ‘स्वतंत्र’ शब्‍द का वही अर्थ नहीं रहा  है जैसा कि आधुनिक कानूनी अर्थों में माना जाता है। और इसलिएपीआरसी तिब्‍बत को चीन के गणराज्‍य या पूर्व के साम्राज्यों के काल से ‘विरासत में’ प्राप्त नहीं कहसकता है, जैसा कि उसका दावा है। इसीलिए तिब्बत वास्तव में और कानूनी तौर पर भी१९१२ से १९५०/५१ तक एक स्वतंत्र देश था, जब तक कि पीआरसी ने इस पर आक्रमण नहीं किया था।‘

प्रोफेसर माइकल वैन वॉल्ट ने अपनी गवाही में कहा कि, इसलिए ‘चीन-तिब्बती संघर्ष को बातचीत से समाधान करने के लिए और तिब्बत में चीन की उपस्थिति और शासन की वैधता को खत्‍म करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।न कि ऐसे बयानों की,जो तिब्बत पर संप्रभुता के चीन के दावे को स्वीकार करते हैं। इसके लिए तिब्बत को एक अधिकृत देश कहने और इसी के अनुरूप इस समस्‍या  का समाधान करने की आवश्यकता है।असल  में तिब्बती विदेशी अधीनता और प्रभुत्व में जी रहे लोग हैं। वे न तो चीनके ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय हैं न ही वहां के कोई ‘जातीय समूह’। पीआरसी द्वारा उपयोग की जा रही इस तरह की शब्दावली को स्‍वीकार कर लेने से तिब्बती लोग अपनी उचित स्थिति से वंचित हो जाते हैं और परोक्ष रूप से आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित हो जाते हैं। और अंत में, यह आवश्यक है कि तिब्‍बत मुद्दे को चीन-तिब्बत संघर्ष के रूप में एक अंतरराष्ट्रीय विवाद माना जाए और इसी स्‍तर से इस समस्‍या का निराकरण किया जाए,जो पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अमेरिकी सरकार के दायरे और जिम्मेदारी के अंतर्गत आता है, चीन के आंतरिक मामले के तहत। उन्होंने आगे राष्ट्रपति जो बिडेन द्वारा ताइवान और यूक्रेन के संदर्भ में बल प्रयोग द्वारा किसी देश या क्षेत्र पर कब्जा करने के प्रयास को मान्यता नहीं देने की अमेरिकी नीति पारित किए जाने की भी याद दिलाई।

प्रोफेसर मान-शियांग लाउ ने अपनी गवाही में चीन के १९४९ से पहले के आधिकारिक ऐतिहासिक अभिलेखों में तिब्बत को संप्रभु के रूप में दर्शाए जाने का उल्‍लेख किया। अपनी गवाही के समर्थन में उन्‍होंने तिब्बत को एक गैर-चीनी विदेशी इकाई के रूप में चित्रित करने वाले मिंग और किंग राजवंशों के आधिकारिक मानचित्रों को भी प्रदर्शित किया।चीन ने राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र के संबंधित समझौतों पर भी दस्‍तखत किए हैं,जिसका अर्थ है कि१९१९ के बाद से ही चीन ने सैन्‍य शक्ति के बल पर क्षेत्रों को हासिल नहीं करने का वादा किया है।साथ ही पीआरसी ने अन्य देशों को उनकी पिछली औपनिवेशिक विजय और चीन के साथ उनकी पिछली ‘बदमाशी’ की भी लगातार निंदा की है। यह कहते हुए प्रोफेसर लाउ ने कहा, ‘पीआरसी को इस तथ्‍य को साबित करना होगा कि उसकी १९५० की तिब्बत विजय एक ऐसे क्षेत्र के ‘एकीकरण’ के रूप में है जो ‘प्राचीन काल से चीन का हिस्सा रहा है।‘

अपनी गवाही में दो महत्वपूर्ण मौलिक अवधारणाओं- पहला ‘चीनी इतिहास’ का पीआरसी-संस्करण और दूसरा आधिकारिक चीनी अभिलेखों के आधार पर वास्‍तविक चीनी इतिहास के बीच व्यापक असमानताओं को स्‍पष्‍ट करते हुए प्रोफेसर लाउ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पीआरसी का तिब्बत पर संप्रभुता का प्रमाण न केवल विकृतियों पर आधारित है बल्कि १९४९से पहले के चीनी अभिलेखों में पूर्ण रूप से जालसाजी करने पर आधारित है।

सुनवाई में तीसरे पैनलिस्ट तेनज़िन नामग्याल टेथोंग ने २०वीं शताब्दी में तिब्बत-चीन संबंधों पर संक्षेप में बात की, जिसमें तिब्बत मुद्दे के समाधान की दिशा में प्रयास भी शामिल थे। माओ के चीन पर कब्‍जे के बाद पीएलए के आक्रमण और बाद के अपनी स्वायत्तता की रक्षा में अंतरराष्ट्रीय और संयुक्त राष्ट्र के समर्थन की मांग के तिब्बती सरकार के प्रयासों को याद दिलाते हुएउन्होंने कहा कि, ‘चीन को सही पता था कि इस तरह के आक्रमण के लिए बयानबाजी का औचित्य पर्याप्त नहीं था, इसीलिए उसने तिब्‍बत को औपचारिक रूप से समझौते को अंतिम रूप देने को बातचीत के लिए बुलाया और अंततः १७ सूत्री समझौते को मूर्त रूप दिया। इसपर तिब्बती प्रतिनिधियों ने दबाव में हस्ताक्षर किए। तिब्बत अगले कुछ वर्षों के दौरान समझौते की व्यापक सीमा के भीतर काम करने का प्रयास करता रहा। लेकिन इसके बावजूद, चीन ने उन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की दिशा में काम नहीं किया जिनके बारे में परम पावन दलाई लामा को माओ से व्यक्तिगत आश्वासन प्राप्त हुआ था। इससे अंततः सर्वव्यापी असंतोष पैदा हुआ, जिसका समापन१० मार्च १९५९ के तिब्बती विद्रोह और चीनी दमन के रूप में हुआ।

समझौता

तेनज़िन नामग्याल तेथोंग ने आगे कहा कि इस घटना के कारण परम पावन और तिब्बतियों को तिब्‍बत से निर्वासित होना पड़ा, जबकि पीआरसी द्वारा तिब्बत को बाहरी दुनिया से पूरी तरह से काट दिया गया। उन्होंने जारी रखते हुए कहा कि,हालांकि१९७९की शुरुआत में चीन ने तिब्बती मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण समझा कि उस पर दोबारा गौर किया जाए। देंग शियाओपिंग ने दलाई लामा के बड़े भाई को बीजिंग आमंत्रित किया और घोषणा की कि अलगाव के अलावाहर चीज पर चर्चा की जा सकती है। इस सफल बैठक ने परम पावन दलाई लामा और चीनी सरकार के बीच नए सिरे से संवाद का मार्ग प्रशस्त किया। दशकों के गतिरोध के बाद २००१में संवाद को फिर से बहाल किया गया था।तब तिब्बती प्रतिनिधियों ने २००८के तिब्बत-व्यापी विरोध के बाद भी २०१०में चीन की वार्ता प्रक्रिया की समाप्ति तक बैठकों में मध्यम मार्ग दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना जारी रखा। इस घटनाक्रम पर ध्यान देने से यह स्‍पष्‍ट होता है कि ‘सबसे चुनौतीपूर्ण समय में भीचीन तिब्बत में अपने शासन की वैधता को सही ठहराने की आवश्यकता पर ही जोर देता रहा है। और यह कि शायद अब उसे अपने शासन में कमियों का अहसास हो गया है, तभी चीन ने भी बार-बार परम पावन दलाई लामा के साथ सीधा संवाद शुरू करने की बात की है और इन बकाया मुद्दों के सार्थक समाधान खोजने की स्पष्ट आवश्यकता को प्रदर्शित किया है। इसलिए, उन्होंने अमेरिका और अन्य पक्षों से वार्ता के माध्यम से चीन-तिब्बत तनाव को सुलझाने के लिए निरंतर प्रयास और समर्थन का आग्रह किया।

एलेन बोर्क ने गवाही दी कि वस्तुतः तिब्बत मुद्दे पर अमेरिकियों के बहुत कम ध्‍यान के बावजूद, तिब्‍बत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सर्वोच्‍च प्राथमिकता पर है। इस प्राथमिकता का समर्थन उन क्रियाकलापों से स्पष्ट हो जाता है जो पार्टी की निगरानी, ​​दमन और नियंत्रण से लेकर महासचिव शी जिनपिंग के धर्म का चीनीकरण करने के लक्ष्य के अलावा तिब्‍बत केप्राकृतिक संसाधनों के दोहन और भारत-तिब्बत सीमा पर सैन्य बलों के जमावड़े में दि‍खाई देता है।

तिब्बत मुद्दे से निपटने के लिए अमेरिका के दृष्टिकोण में लगातार बदलाव को देखते हुए एलेन बोर्क ने चीनी और तिब्बती राजनीतिक कैदियों, असंतुष्टों, लोकतंत्र कार्यकर्ताओं, स्वतंत्र पत्रकारों और वकीलों के लिए नए सिरे से और दोगुना समर्थन जुटाने की सिफारिश की। उन्होंने चीनी साम्राज्यवादी शासन के अंत के बाद से अमेरिकी तिब्बत नीति की एक स्वतंत्र समीक्षा करने का भी सुझाव दिया, जिसमें राजनयिक इतिहास और आंतरिक विचार-विमर्श शामिल हैं।जिन्होंने तिब्बत के प्रति अमेरिका के दृष्टिकोण को प्रभावित किया है और चीन के हमले का मुकाबला करने में तिब्बत नीति को अंतरराष्ट्रीय कानून सहित लोकतांत्रिक मानदंडों पर अमेरिका के हित के अनुरूप खड़ा किया है। उन्‍होंने कहा कि इससे अगले दलाई लामा के चयन के लिए तिब्बती प्रक्रिया की अखंडता पर सहयोगियों को एकजुटता के साथ शामिल करके हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लोकतंत्र को आगे बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।

इसके अलावा, उन्होंने अमेरिका से सरकार के शीर्ष स्तर पर केंद्रीय तिब्बत प्रशासन (सीटीए) के निर्वाचित अधिकारियों का स्‍वागत करने और उन्हें लोकतंत्र और अन्य मंचों के शिखर सम्मेलनों में शामिल करने का आग्रह किया।साथ ही तिब्बत को अंतरराष्ट्रीय संगठनों, विश्वविद्यालय परिसरों और राज्य और स्थानीय स्तर पर चीनी प्रभाव का मुकाबला करने के प्रयासों का एक हिस्सा बनाए जाने का भी आग्रह किया।

पैनलिस्टों और उपस्थित लोगों के बीच एक घंटे के प्रश्न-उत्तर सत्र के बाद सुनवाई समाप्त हुई।


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