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चीन में सत्ता परिवर्तन और तिब्बत का सवाल: डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

November 13, 2012

१९४९ में चीन में हुये गृह युद्ध के फलस्वरुप वहाँ की सत्ता पर माओ के नेतृत्व में चीनी साम्यवादी पार्टी का कब्जा हो गया था । माओ जब तक जिन्दा रहे तब तक तो सत्ता उन्हीं के पास रही लेकिन उनकी मौत के बाद दस साल बाद सत्ता परिवर्तन की परम्परा स्थापित हुई । उसी के अनुसार पार्टी की अठाहरवीं कांग्रेस में नये नेतृत्व के पास सत्ता सूत्र चले गये । राष्ट्रपति हू जिनताओ के स्थान पर शी जिंगपिंग और प्रधानमंत्री वेन जिआवाओ के स्थान पर ली किछीयांग ने पद संभाल लिया है । इस परिवर्तन का विश्व के लिये क्या अर्थ है , इस पर लम्बे अरसे तक बहस चलती रहेगी । लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न है कि इस परिवर्तन का भारत और तिब्बत के लिये क्या अर्थ है ? दरअसल तिब्बत पर भी असली संकट चीन के गृह युद्ध में माओ को मिली सफलता के बाद ही शुरु हुआ । 1949 में ही चीन ने तिब्बत पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया था और १९५९ तक तिब्बत पूरी तरह चीन के कब्जे में आ चुका था । भारत पर चीन की छाया भी उसके तिब्बत कब्जे के बाद ही पड़नी शुरु हुई , जबकि भारत ने चीन के तिब्बत कब्जे का विरोध भी नहीं किया था । न तो अब चीन में वह पीढ़ी या नेतृत्व रहा है , जिसने गृह युद्ध में भाग लिया है और न ही तिब्बत में वह पीढ़ी बची है जिसने १९५९ के महा जन विद्रोह को देखा था या फिर दलाई लामा का पलायन देखा था । इस मामले में भारत को ही अपवाद कहा जा सकता है कि वह आज साठ साल बाद भी चीन को लेकर नेहरु की नीति का ही अनुसरण कर रहा है ।

तिब्बत की जवान हो चुकी नई पीढ़ी में छटपटाहट ज्यादा बढ़ने लगी है । चीन के खिलाफ उनका गुस्सा ही नहीं बढ़ रहा , बल्कि आजादी की लड़ाई में तेज़ी भी आ रही है । फिलहाल तिब्बती युवाओं का आजादी आन्दोलन अहिंसक ही है । यह दलाई लामा का प्रभाव ही कहा जा सकता है । लेकिन यह कब तक बना रहेगा, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । तिब्बत में उभर रहे असन्तोष का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल में ७० से भी ज्यादा लोगों ने चीनी आधिपत्य के विरोध में आत्मदाह कर लिया है । आत्मदाह करने वालों में ज्यादा लोग युवा वर्ग में ही आते हैं । यह वह पीढ़ी है जिसने दलाई लामा को देखा नहीं है केवल उनका नाम सुना है । तब भी वे उनके नाम पर अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं । आजादी के इस आन्दोलन की ज्वाला बुद्ध मंदिरों व मठों के भिक्षु भिक्षुणियां ही जला रहे हैं , जबकि चीन सरकार पिछले साठ साल से इन मठों की पहचान को समाप्त करने के प्रयास में लगी हुई है । आजादी के इस आन्दोलन का अर्थ है कि चीन सरकार अपने अभियान में सफल नहीं हुई । जब से चीनी साम्यवादी पार्टी की १८वीं कांग्रेस शुरु हुई उसी के कुछ दिनों के बीच आठ तिब्बती आत्मदाह कर चुके हैं ।

लेकिन असली प्रश्न है कि चीन के नये नेता क्या तिब्बत के प्रति अपनी नीति बदलेंगे या फिर उसी पुरानी नीति को ही जारी रखेंगे ? एक बार ऐसी आशा माओ के मरने के बाद देंग शिओफेंग के काल में बंधी थी, जब उसने कहा था कि आजादी से कम और किसी भी विकल्प पर तिब्बत को लेकर बात हो सकती है । देंग ने ही दलाई लामा के प्रतिनिधियों को तिब्बत में बुलाया था । शायद देंग को आशा थी कि अब तक दलाई लामा का प्रभाव तिब्बत के लोगों पर कम हो गया होगा । लेकिन जब उसका यह विचार ग़लत निकला तो वह तिब्बत को लेकर अपने इस प्रयोग से भी पीछे हट गये । शी जिंगपिंग के ऐजंडा में तिब्बत को लेकर ऐसी कोई कल्पना है इसकी संभावना कम ही दिखाई देती है ।

भारत के प्रति चीन की नीति में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आयेगा , ऐसी आशा नहीं करनी चाहिये । भारत को लेकर चीन की नीति उसके तात्कालिक हितों पर नहीं बल्कि दूरदामी रणनीति पर आधारित है । चीन नहीं चाहता की विश्व राजनीति में भारत का महत्वपूर्ण स्थान बने । वह उसे उसके पड़ोसी देशों में ही उलझाये रखना चाहता है । इसीलिये चीन भारत के पड़ोसी देशों को हथियार सप्लाई करता रहता है । चीन का नया नेतृत्व भारत के प्रति अपनी पुरानी बदलेगा , इसका कोई ठोस कारण दिखाई नहीं देता । विदेश नीति में मौलिक परिवर्तन की संभावना हो सकती है यदि देश में सरकार परिवर्तन किसी वैचारिक आधार पर हुआ हो या फिर नया नेतृत्व पुराने नेतृत्व से किसी बड़े संघर्ष के बाद निकला हो । फिलहाल चीन में ऐसी स्थिति नहीं है ।

नया नेतृत्व हू जिनताओ की पसन्द ही कही जा सकती है । इस लिये भारत के प्रति चीन की नीति पूर्ववत् ही रहेगी , यही मान कर चलना चाहिये । लेकिन दुर्भाग्य से भारत की विदेश नीति का निर्णय करने वालें में अभी भी बहुमत ऐसे लोगों का ही है जो माओ नेहरु से हाथ मिलाने के लिये पहले आगे बढ़े , के आधार पर नीति निर्धारित करते हैं । एक पूर्व विदेश सचिव अभी भी देश को यही विश्वास दिलाना चाहते हैं कि चीन से भारत के रिश्ते इसलिये खराब हुये क्योंकि दिल्ली ने १९५९ में दलाई लामा को शरण दे दी थी । वे अभी भी तुष्टीकरण से ही चीन को प्रसन्न करने में ही विश्वास रखते हैं । इसी प्रकार के नीति निर्धारक शी जिंगपिंग के सत्ता आरोहण में ज़रुरतों से ज्यादा अर्थ तलाशने की कोशिश कर रहे हैं ।

यह ताज्जुब की बात है कि तिब्बती स्वतंन्त्रता संग्राम में एक साल में ७० से भी ज्यादा आत्मदाह होने पर भी भारत सरकार के मुँह से एक शब्द तक नहीं निकला । सरकार चीन के साथ मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा तो उठा ही सकती है । कूटनीति के स्तर पर यदि भारत सरकार चीन से उसी की भाषा में बात नहीं करेगी तो यक़ीनन चीन का नया नेतृत्व कुछ कर दिखाने के लालच में भारत के प्रति और भी आक्रामक हो सकता है । वैसे भी अब चीन ने स्वयं ही स्वीकार किया है कि १९६२ में भारत पर आक्रमण का कारण माओ की चीन की राजनीति पर कमज़ोर होती पकड़ ही थी । अब भी यदि चीन में आर्थिक स्थिति बिगड़ती है , तो देश का ध्यान बँटाने के लिये भारत निशाना नहीं बनेगा , इसकी क्या गारंटी है ? भारत सरकार को अपनी चीन नीति इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर ही बनानी चाहिये , न कि चीन की अठाहरवीं कांग्रेस में दिये गये भाषणों को ध्यान में रखकर । तिब्बत चीन को नियंत्रण में रखने का एक कारगार माध्यम है न कि भारत चीन सम्बंधों में अवरोधक , इस तथ्य को जितना जल्द ह्रदयंगम कर लिया जाये उतना ही कल्याणकारी होगा ।


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