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तिब्बत की आग

November 10, 2011

अमर उजाला, 09 नवंबर 2011

पिछले दिनों चीनी प्रांत सिचुआन के तिब्बती जिले कारजे में एक 30 वर्षीय तिब्बती भिक्षुणी पालदेन छोत्सो ने भरे बाजार में खुद को आग लगाकर जान दे दी। इससे करीब पखवाड़े भर पहले सिचुआन के एक अन्य तिब्बती शहर गाबा में भी एक 20 वर्षीय भिक्षुणी ने इसी तरह आत्मदाह कर लिया था। तिब्बत पर चीनी शासन के विरोध में इस साल मार्च के बाद आत्मदाह करने वाली पालदेन 12वीं तिब्बती युवा थी। इस आंदोलन की मांगों में तिब्बत की चीनी कब्जे से मुक्ति और तिब्बती जनता के मानवाधिकारों की बहाली प्रमुख हैं।

पिछले नौ महीने से तिब्बती युवाओं द्वारा आत्मदाह के इस नए सिलसिले ने वियतनाम और ट्यूनीशिया में युवाओं के आत्मदाह की उन ऐतिहासिक घटनाओं की याद ताजा कर दी है, जिन्होंने दुनिया के इतिहास का रुख बदल दिया। 11 जून 1963 को वियतनाम के एक बौद्ध भिक्षु थिच कुआंग टुक ने अमेरिका समर्थित शासक गो दिन दिएम के बौद्ध-विरोधी अत्याचारों के खिलाफ विदेशी पत्रकारों के सामने आत्मदाह कर अमेरिका समेत दुनिया भर में ऐसे मानवाधिकार आंदोलन को जन्म दिया था, जिसने अमेरिका को वियतनाम से सेना वापस बुलाने पर मजबूर कर दिया।

इसी तरह विगत 17 दिसंबर को ट्यूनीशिया के एक पटरी दुकानदार ने स्थानीय म्युनिसपैलिटी अफसरों के अत्याचार के खिलाफ आत्मदाह कर अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में एक ऐसे लोकतंत्रवादी आंदोलन का बारूद सुलगा दिया, जो पिछले 11 महीने में ट्यूनीशिया के तानाशाह अल अबिदीन बेन अली के अलावा मिस्र के हुस्नी मुबारक और लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी के तख्ते पलट चुका है, और बहरीन, सीरिया, यमन, अलजीरिया, जॉर्डन, मोरक्को, इराक और मारितानिया समेत कई देशों में गृहयुद्ध का बिगुल बजा चुका है। बल्कि पिछले दो महीने से इस आंदोलन ने अमेरिका में ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ से शुरू होकर अमेरिका और यूरोप समेत लगभग 700 शहरों को अपनी लपेट में ले लिया है।

हालांकि इनमें से अधिकांश देशों के मुकाबले चीनी कब्जे वाले तिब्बत में चल रहा आत्मदाह आंदोलन कहीं अधिक व्यापक, सुनियोजित और उत्साह भरा है। लेकिन इसे बीजिंग के कूटनीतिक, आर्थिक और सैनिक प्रभाव का ही कमाल माना जाएगा कि वह इसे अंतरराष्ट्रीय जनमत के फोकस से बाहर रखने में लगातार कामयाब हो रहा है। जिस कम्युनिस्ट चीन सरकार ने अमेरिकी ‘साम्राज्यवाद’ के विरोध में सत्तर के दशक में वियतनामी भिक्षु की लाखों तसवीरें दुनिया भर में बांटी, वही बीजिंग आज आत्मदाह करने वाले तिब्बती युवाओं को ‘देशद्रोही’ और ‘विदेशी एजेंट’ बता रहा है।

चीनी खुफिया एजेंसी पीएसबी और पुलिस के ‘मानवीय’ व्यवहार का आलम यह है कि 16 मार्च को गाबा (सिचुआन) के कीर्ति मठ में आत्मदाह करने वाले 20 वर्षीय भिक्षु फुंसोक की आग बुझाने के बजाय उन्होंने उसे भीड़ के सामने बूटों और डंडों से पीटा। इन आत्मदाहों ने तिब्बत में 60 साल से चल रहे चीनी उपनिवेशवाद के ऐसे कई पहलुओं को केंद्र में ला खड़ा किया है, जिन्हें छिपाने में चीन सरकार कई दशक से जुटी हुई है। पिछले छह दशक से बीजिंग दावा करता आ रहा है कि ‘अपनी मरजी से चीन में शामिल होने के बाद’ तिब्बत को चीन ने ‘स्वर्ग’ बना दिया है। दुनिया यह देखकर हैरान है कि तिब्बत की आजादी और दलाई लामा के समर्थन में जान देनेवाले तिब्बती युवाओं की इस पीढ़ी ने न तो कभी आजाद तिब्बत का स्वाद चखा और न दलाई लामा को देखा है। बल्कि यह पीढ़ी चीनी प्रचार और कम्युनिस्ट शिक्षा की ब्रेन वाशिंग व्यवस्था में पली-बढ़ी है।

ये सभी आत्मदाह तिब्बत के खम और आम्दो नाम के उन दो राज्यों में हुए हैं, जिन्हें बीजिंग तिब्बत का हिस्सा मानने को भी तैयार नहीं है। 1951 में तिब्बत पर जबरन कब्जा करने के बाद बीजिंग ने तिब्बत का पुनर्गठन करने के नाम पर उसके तीन में से इन दो प्रांतों को साथ लगने वाले चीनी राज्यों युन्नान, सिचुआन, गांसू और चिंघाई में मिला दिया था और बाकी बचे हुए इलाके को ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ नाम देकर तिब्बत का नक्शा बदल दिया था। इस आंदोलन ने चीन के इस उपनिवेशवाद की असलियत को भी नंगा कर दिया है। इन आत्मदाहों के बाद तिब्बत भर में हुए चीन-विरोधी जन प्रदर्शनों में तिब्बती जनता ने कहीं भी हिंसा नहीं की।

दलाई लामा ने चीनी नेतृत्व को सलाह दी है कि वह इन आत्मदाहों के पीछे तिब्बती युवाओं के दर्द को समझें। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े 27 स्वयंसेवी संगठनों ने तिब्बत में मानवाधिकारों पर चीनी शिकंजे को दोषी ठहराते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त से अपील की है कि वह तिब्बत में मानवधिकारों की बहाली के लिए दबाव डाले। चीन के भीतर और बाहर मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले 200 से ज्यादा चीनी लेखकों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार संगठनों ने बीजिंग की दमनकारी नीतियों की आलोचना करते हुए कहा है कि इस कारण ही तिब्बती युवा आत्मदाह करने को मजबूर हो रहे हैं।

लेकिन अब तक के संकेतों से यही लगता है कि बीजिंग तिब्बत पर अपनी नीतियां सुधारने के बजाय आत्मदाह करने वाले युवाओं को ही दोषी मान रहा है। चीनी कम्युनिस्ट नेताओं ने अगर तिब्बत में दमन का रास्ता नहीं बदला, तो उनके शासन का भी वैसा ही अंत हो सकता है, जैसे वियतनाम में अमेरिका का, कम्युनिस्ट सोवियत संघ का और ट्यूनीशिया, मिस्र तथा लीबिया के तानाशाहों का हुआ।

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