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तिब्बत नहीं, जिज़ांग: चीन के मनमाने नामकरण के मतलब क्या है

May 5, 2025

बीजिंग चाहता है कि दुनिया तिब्बत को इस तरह जाने और याद रखे, जिससे चीन को लाभ हो। इस अभियान में चाहे जितना समय लग जाए, चीन को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
–
स्ट्रैटन्यूज़ ग्लोबल पर तेनज़िन चेमी

पीआरसी के स्टेट काउंसिल इंफॉर्मेशन ऑफ़िस द्वारा तिब्बत पर श्वेत-पत्र प्रकाशित करना बहुत आम बात है। हालाँकि, हाल में जारी श्वेत-पत्र में इस शैली में थोड़ा बदलाव कर इसे विशिष्ट समयबद्धता और सूत्र रूप में घुमा-फिराकर बातें की गई हैं। इसका प्रमाण इस श्वेत-पत्र के नए शीर्षक- नए युग में जिज़ांग में मानवाधिकार’ से ही मिल जाता है।

पूरे दस्तावेज़ में २३१ बार ‘जिज़ांग’ शब्द का उल्लेख किया गया है। एक तरफ़ जहां यह वैश्विक और राष्ट्रवादी विमर्श के शब्दकोश में ‘तिब्बत’ की जगह नाम बदलकर ‘जिज़ांग’ करने के सीसीपी के हाल ही में किए गए प्रयासों को दर्शाता है, जबकि दूसरी तरफ़ यह तिब्बत पर अवैध कब्जे को लेकर उपजे उसके असुरक्षा बोध को उजागर करता है।

श्वेत-पत्र २७ मार्च, २०२५ को जारी किया गया। इसी दिन बीजिंग ने कथित तौर पर तिब्बत को कथित ‘सामंती दासता से मुक्ति’ दिलाकर और ‘लोकतांत्रिक सुधार’ करने की ६६वीं वर्षगांठ मनाई। चीन इस अवसर को ‘मानव सभ्यता और वैश्विक मानवाधिकारों के इतिहास में महत्वपूर्ण छलांग’ लगाने वाला ‘निर्णायक मील का पत्थर’ बताता है।

अधूरे आंकड़े
श्वेत-पत्र में अपेक्षा के अनुरूप काल्पनिक बातें ही ज्यादा की गई हैं। इसमें अपनी करनी को सही ठहराने के लिए सामग्री को आकर्षक ढंग से पेश करने की कोशिश की गई हैं। हालांकि इस उपक्रम में तर्कों की पर्याप्त कमी है। इस पूरी कवायद में मानवाधिकारों के जटिल तत्वों को समझने में चीनी सरकार की लापरवाही या ऐसा करने में उसकी विफलता ही उजागर हो गई है। दस्तावेज़ में वास्तविक जानकारी आधी-अधूरी है। श्वेत-पत्र में जो एकमात्र और सीमित आंकड़ा दिया गया है, वह परिवहन अवसंरचना पर केंद्रित है। वह भी आश्चर्यजनक रूप से न तो मानवाधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देता है और न ही तिब्बतियों को आर्थिक लाभ को ही सुनिश्चित करता है। श्वेत-पत्र में क्षेत्र (तिब्बत) में ‘राष्ट्रीय एकता की रक्षा’ और ‘अलगाववादी ताकतों का मुकाबला’ जैसे जुमले तिब्बत में मानवाधिकारों की वास्तविक स्थिति के बारे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को प्रभावी ढंग से न तो कोई जानकारी देते हैं और न ही उन्हें अपनी बातों के प्रति आश्वस्त कराते हैं।

लकीर के फकीर की तरह पेश किया गया यह श्वेत-पत्र चीन की व्यापक नीतियों और मूल सिद्धांतों को दर्शाता है जो चीनी सरकार के धार्मिक मामलों के साथ-साथ भाषाई, शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों के प्रबंधन को संचालित करते हैं। श्वेत-पत्र मूल रूप से भयंकर प्रचारात्मक आख्यानों से भरा पड़ा है, जिसमें परम पावन दलाई लामा सहित तिब्बती बौद्ध हस्तियों के पुनर्जन्म को मान्यता देने के चीन के ‘निर्विवाद’ नियंत्रण और वैधता का दावा किया गया है। चीन में धर्मों को ‘चीन की वास्तविकताओं के अनुरूप और समाजवादी समाज के साथ ताल से ताल मिलाकर रहने’ के लिए सरकार के गंभीर प्रयासों को संदर्भित करने में ‘कानून’ और ‘वैध’ शब्दों को बार बार दुहराने के साथ कानूनों, विनियमों और नीतियों का व्यापक और जटिल जाल फैलाया गया प्रतीत होता है जो तिब्बत के धर्म पर बीजिंग के दृढ़ नियंत्रण की असलियत को ही उजागर करता है।

जिज़ांग तिब्बत नहीं है
तिब्बत में वास्तविक मानवाधिकार की स्थिति पर बात करने से बचते हुए श्वेत-पत्र में बार-बार ‘जिज़ांग’ शब्द को दोहराया गया है। यह अपेक्षाकृत एक नया विकास है। या यूं कहें तो वास्तव में यह ताज़ा और कठोर दृष्टिकोण है, जिसे कई लोग पहचान की नीति से जोड़कर देखते हैं। असलियत यह है कि ‘जिज़ांग’ शब्द से संपूर्ण तिब्बत के बजाय मध्य और पश्चिमी तिब्बत क्षेत्र को ही संदर्भित किया जा सकता है। संपूर्ण तिब्बत अपने तीन पारंपरिक प्रांतों- यू-सांग, खाम और अमदो से मिलकर बना है।

तिब्बत को ‘जिज़ांग’ के रूप में संदर्भित करने के लिए चीन का सरकार की ओर से दबाव १४ अगस्त, २०२३ को चीन द्वारा तिब्बती अध्ययन पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी कराने के तुरंत बाद अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने यूनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट द्वारा संचालित वीचैट अकाउंट टोंगज़ान शिन्यू पर एक प्रसारित रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा, ‘हार्बिन इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ मार्क्सिज्म के एक प्रोफेसर वांग लिनपिंग ने ‘तिब्बत’ शब्द के अंग्रेजी अनुवाद की तत्काल आवश्यकता बताई है जो चीन की स्थिति का ‘सटीक’ वर्णन करनेवाला होना चाहिए। बीजिंग इस अभियान को एक सुधारात्मक उपाय के रूप में सुरक्षित तौर पर चला रहा है, ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय तिब्बत की स्थिति को समझ सके और सार्वभौमिक नाम (तिब्बत) से और ‘गुमराह’ न हो।

चीन की चिंता
प्रोफ़ेसर शेरिंग शाक्य चीनी सरकार की ओर से एकमात्र सुधारात्मक उपाय के तौर पर स्थानों के नए नामकरण किए जाने से अलग जाकर एक तर्क देते है। प्रोफ़ेसर शाक्य का तर्क है कि यह अभियान ‘तिब्बत’ शब्द की मौजूदा अंतरराष्ट्रीय धारणाओं को लेकर चीन की चिंता से प्रेरित है। अंतरराष्ट्रीय मानस में तिब्बत चीन का अभिन्न अंग होने की बजाय एक अलग देश के रूप में उभर कर सामने आता है।’

बीजिंग द्वारा तिब्बत के लिए ‘जिज़ांग’ शब्द का उपयोग करना हाल के वर्षों में राजनीतिक क्षेत्र से आगे बढ़कर शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थानों तक फैल गया है, जो अपनी सीमाओं से परे चीन के बढ़ते दबाव और प्रभाव को दृढ़ता से दर्शाता है। और पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें


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