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तिब्बत नीति संस्थान द्वारा आयोजित और सामाजिक अनुसंधान संस्थान, चुलालोंगकोर्न विश्वविद्यालय द्वारा सह-मेजबानी किए गए तिब्बत पर्यावरण सम्मेलन में विभिन्न दक्षिण -पूर्व एशियाई देशों के सात प्रतिष्ठित वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पैनलों में चर्चा की।
विभिन्न पैनलों में वक्ताओं ने हिमालयी समुदायों में जलवायु लचीलेपन के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करने से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया में ग्रीष्मकालीन मानसून की शुरुआत पर तिब्बती पठार के प्रभाव तक पठार के पारिस्थितिकीय महत्व और वैश्विक जलवायु वार्ताओं में तिब्बत की जरूरतों और जनभागीदारी के महत्व पर प्रकाश डाला।
२८ नवंबर को समापन सत्र में चुलालोंगकोर्न विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज के पूर्व निदेशक प्रोफेसर सुरीचाई वुन गियो का संबोधन हुआ। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि आज जिस पानी के मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, इसके लिए एक देश जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नदियों को बचाने के लिए एकजुट होकर चुनौतियों से पार पाना सभी देशों की जिम्मेदारी है।
सोशल रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉ. सुरंगरुत जुमनियानपोल ने थाईलैंड और मेकांग नदी का उदाहरण दिया और निचले देशों की ओर अत्यधिक खनन से तिब्बती पठार में उत्पन्न हुए इसके निहितार्थ पर प्रकाश डाला। डॉ. छेवांग ग्याल्पो आर्य ने तर्क दिया कि यह सम्मेलन सभी दक्षिण-पूर्व और एशियाई देशों के लिए भविष्य की नदी सुरक्षा के लिए मिलकर काम करने का एहसास कराता है। उन्होंने वक्ताओं और आयोजकों को सराहना के प्रतीक बांटे। टीपीआई के शोधार्थी डेचेन पाल्मो ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।