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तिब्बत पर फिर गलती

September 28, 2014

जागरण, 27 सितम्बर 2014

Chellaney_Brahma_D34D4149a_klमोदी से चीन के साथ रिश्तों के संदर्भ में तिब्बत मसले को फिर से खोलने की अपेक्षा कर रहे हैं

ब्रह्मा चेलानी

चीन ने वर्ष 1950 में तिब्बत को हड़प लिया या कहें अपने में मिला लिया। हालांकि अभी भी यह मुद्दा भारत-चीन की समस्याओं का मुख्य केंद्र है, जिसमें भौगोलिक विवाद, सीमा तनाव और जल विवाद शामिल हैं। बीजिंग ने स्वयं तिब्बत मसले को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए भारत के एक बड़े भूभाग पर दावा किया है और कहा है कि इन भूभागों का संबंध तिब्बत से है। जब चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग पिछले सप्ताह भारत की यात्रा पर थे तो तिब्बत को लेकर बहुत कुछ लिखा और कहा गया। वास्तव में देखा जाए तो शी चिनफिंग की यात्रा बहुत हद तक परंपरागत भारत-तिब्बत सीमा में चीनी सेना की घुसपैठ के साये में संपन्न हुई। पिछले कई वर्षो से हो रही घुसपैठ के मद्देनजर इस बार चीनी सैनिकों की संख्या काफी अधिक थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि शी चिनफिंग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जन्मदिन के उपहार के तौर पर भारत को कड़ा संदेश देने के लिए यह समय चुना अथवा निर्धारित किया।

मोदी सरकार ने नई दिल्ली में शी चिनफिंग की यात्रा के दो दिनों के दौरान तिब्बत के निर्वासितों को विरोध प्रदर्शन की अनुमति दी। इसमें शिखर बैठक के पास का स्थान भी शामिल है। यह विरोध प्रदर्शन 1990 की शुरुआत में होने वाले कड़े विरोध प्रदर्शनों से अलग था जब पुलिस किसी भी महत्वपूर्ण चीनी व्यक्ति के आगमन पर ऐसे किसी भी विरोध प्रदर्शनों को नाकाम अथवा विफल बनाने की कोशिश करती थी। वास्तव में मनमोहन सिंह के ही एक दशक लंबे शासन के दौरान पुलिस ऐसी किसी स्थिति में दिल्ली में स्थित तिब्बतियों के घरों के आसपास वाले इलाकों को बंद करा देती थी और रैली की कोशिश करने पर उन्हें बुरी तरह पीटती थी। इस तरह का क्रूर बर्ताव बहुत हद तक चीन के एकाधिकारवादी शासन से मेल खाता था, लेकिन यह उस देश के लिए शोभा नहीं देता जो खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता हो। ऐसी किसी भी घटना के दौरान प्रदर्शनकारियों का मुंह बंद कराने पर चीन से भारत को कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला। इसलिए यह बदलाव स्वागतयोग्य है कि भारत ने बड़ी तादाद में तिब्बती प्रदर्शनकारियोंको अपने वैध लोकतांत्रिक अधिकारों को अभिव्यक्त करने की मान्यता अथवा स्वीकृति दी। यहां तक कि खुद दलाई लामा ने भी शी चिनफिंग की यात्रा के दौरान अपनी बात कहने में अधिक सहजता महसूस की। उन्होंने भारतीयों को याद दिलाया कि तिब्बत की समस्या वास्तव में भारत की भी समस्या है। चीन के खिलाफ होने वाला तिब्बती प्रदर्शन हालांकि शांतिपूर्ण होता है, जिसे खुद भारतीय संस्थान ही अनुमति देता है।

मई में जब मोदी ने पदभार ग्रहण किया तो तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांग्ये को भी इसमें आमंत्रित किया गया था। इसलिए शी चिनफिंग ने मोदी से यह आश्वासन मांगा कि वह तिब्बत को चीन के हिस्से के तौर पर मान्यता दें। चीन के विदेश मंत्रालय के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि तिब्बत चीन का आंतरिक हिस्सा है और भारत अपनी जमीन से किसी भी अलगाववादी गतिविधि को अनुमति नहीं देगा। निश्चित ही यह आश्वासन निजी बातचीत में दिया गया, क्योंकि मोदी ने इस विषय पर सार्वजनिक रूप से कुछ भी नहीं बोला है। विस्तृत रूप में फैला हुआ तिब्बती भूभाग अपने पूरे इतिहास काल में भारतीय और चीनी सभ्यता द्वारा पृथक रहा है। सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से भी इसका संबंध चीन से बहुत कम रहा है और राजनीतिक संबंध तो कभी रहा ही नहीं। चीन द्वारा तिब्बत को जबरन हड़पे जाने के बाद ही चीनी सेना की टुकडि़यां भारत के हिमालयी सीमावर्ती इलाकों में पहली बार दाखिल हुई। इस घटना का ही परिणाम था कि 1962 में हिमालय पार करके चीन ने खूनी युद्ध को अंजाम दिया। तिब्बत के पतन से आधुनिक भारत का इतिहास भू-राजनीतिक रूप से बदल गया। बावजूद इसके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में तिब्बत पर ब्रिटिश शासकों द्वारा दिए गए अतिरिक्त अधिकार को छोड़ दिया और तिब्बत को चीन के तिब्बत क्षेत्र के तौर पर मान्यता दे दी। हालांकि उस समय तक बीजिंग ने भारत-तिब्बत सीमा को मान्यता नहीं दी थी। उन्होंने यह काम एक समझौते पर हस्ताक्षर करके किया और इसे तिब्बती बौद्ध दर्शन के मुताबिक पंचशील नाम दिया।

वर्षो बाद एक अन्य भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार और औपचारिक तौर पर भारत के हाथ में मौजूद तिब्बत कार्ड को चीन को समर्पित करने का काम किया। वाजपेयी की 2003 में बीजिंग यात्रा के दौरान चीनी सरकार ने उनसे असंदिग्ध तौर पर तिब्बत को चीन का हिस्सा होने की स्वीकृति हासिल की। वाजपेयी ने पहली बार इसे वैध शब्दावली प्रदान करते हुए भारत की स्वीकृति अथवा मान्यता दी, जिसे चीन तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र कहता है। चीन इसे अपने भूभाग का आंतरिक हिस्सा बताता है। वाजपेयी के इस आत्मसमर्पण अथवा समझौते ने चीन को भारत के एक बड़े उत्तरपूर्वी क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश (ताइवान से तीन गुना बड़ा) पर अपना दावा करने का मौका दिया। 2006 से चीन इसे दक्षिण तिब्बत नाम से पुकारता है। इसी तरह चीन ने जम्मू-कश्मीर के भारतीय हिस्से पर उसकी संप्रभुता को लेकर सवाल उठाना शुरू किया। इसका एक तिहाई हिस्से से अधिक भाग पाकिस्तान के पास है तो पांचवां भाग चीन ने कब्जा रखा है। इस तरह के हालात ने चीनी सेना को बार-बार घुसपैठ के लिए बल दिया। 2010 से भारत ने तिब्बत का उल्लेख करना बंद कर दिया है और चीन के साथ संयुक्त बयानों में ‘एक चीन’ शब्द का उल्लेख किया जाता है।

फिर से एक गड़बड़ी यह हुई कि मोदी-शी के संयुक्त बयान में पिछले दरवाजे से तिब्बत का मुद्दा लाया गया और चीनी तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र की स्थानीय सरकार को धन्यवाद दिया गया। इस संयुक्त बयान में भारतीय पक्ष की ओर से भारतीय तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए चीनी तिब्बती स्वायत्तशासी क्षेत्र की स्थानीय सरकार और विदेश मंत्रालय के सहयोग और समर्थन के लिए प्रशंसा की गई है। बहुत चतुराई से उन शब्दों का प्रयोग किया गया है जैसा कि बीजिंग चाहता था, जबकि 2013 में चीन के प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के समय संयुक्त बयान में कहा गया था भारतीय तीर्थयात्रियों की दी जाने वाली सुविधा में सुधार के लिए भारतीय पक्ष चीनी पक्ष की सराहना करता है। शब्दों में यह बदलाव आखिर किसकी गलती से हुआ और क्या इसके लिए मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से अनुमति ली गई थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोषियों को दंडित किया जाएगा। मोदी को अपने पूर्ववर्तियों की गलतियों में सुधार करना चाहिए। वास्तव में भारत को चाहिए कि वह चीन पर तिब्बत से मेल-मिलाप के लिए दबाव डाले अन्यथा तिब्बत मसला भारत-चीन विभाजन का मुख्य मुद्दा बना रहेगा।


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