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तिब्बत में संस्कृति पर चीनी कहर ।

November 18, 2010

[गुरुवार, 18 नवम्बर, 2010 | स्रोत : दैनिक भास्कार राष्ट्रीय संस्करण]

तिब्बत में चीन का दमन यह दर्शाता है कि किस प्रकार संस्कृति का सफाया कर किसी देश या समुदाय की हत्या की जा सकती है । और , संस्कृति को मिटाने का बेहतरीन तरीका संगीत, कला और लेखन को नष्ट करना है। इस साल चीनी प्रशासन ने तीन तिब्बती लेखकों -जंगस्ते दोनखो , बुद्धा और कलसंग जिनपा को गिरफ्तार किया, जिन पर देश को विभाजित करने की गतिविधियां भडकाने के आरोप लगाकर पिछले अक्टूबर माह में मुकदमा चलाया गया। गत 28 अक्टूबर को सिचुआन प्रांत की मध्यवर्ती जन अदालत ने इन तीनों के खिलाफ मुकदमा चलाया गया । गत जून और जुलाई में तीनों लेखकों को हिरासत में लिया गया था और उन पर प्राथमिक रुप से एक स्थानीय न्यूजलेटर शर डूंगरी (यानी पूर्वी बर्फाली पहाड ) में 2008 के तिब्बती विरोध आंदोलन के में लेख लिखने आरोप लगाए गए। तीनों ने अपने खिलाफ लगे आरोप से इंकार किया। बंद कमरे में हुई इस सुनवाई के बाद कोई फैसला नहीं सुनाया गया । तिब्बत में रहने वाले उनके पारिवारिक सूत्रों ने कहा कि प्रशासन ने उन्हें बताया है कि सजा सुनाने से पहले इस केस की समीक्षा की जाएगी । जब लेखक बाहर आए तो पुलिस की निगरानी में कुछ मिनट तक उन्हें अपने परिजनों से मिलने दिया गया । बुद्धा ने अपने मासूम बच्चे को दो बार चूमा और अपनी पत्नी से यह सुनिशिचत करने को कहा कि उनका बेटा तिब्बती भाषा सीखे । बुद्धा ने अदालत में धाराप्रवाह चीनी भाषा में बोलते हुए किसी भी प्रकार का अपराध करने का खंडन किया था। उन्होंने कहा कि उन और अन्य लेखकों पर जिन लेखों को लिखने के आरोप हैष उसी तर्ज पर हान चीनी लेखकों के लेख भी प्रकाशित हुए थे। उन्होंने जज से कहा – चूंकि हम अल्पसंख्यक है, इसलिए आप हमें नजरबंदी , मुकदमा चलाने और जेल की सजा देते है। दो अन्य लेखकों ने तिब्बती भाषा में अपना अच्छी तरह बचाव किया,पर उनके परिवार के एक सदस्य के अनुसार अदालात के अनुवादक ने उनकी टिप्पणियों का गलत अनुवाद पेश किया। इस साल के शुरु में वाशिंगटन स्थित इंटरनेशनल कैम्मेन फॉर तिब्बत नामक संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक तिब्बत में व्यापक विरोध आंदोलन चलने के बाद दो साल के अंदर चीन ने तिब्बती राष्ट्रीय पहचान और नागरिक अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाने वाले अनेक तिब्बती लेखकों ,कलाकारों ,गायकों और शिक्षकों को जेल में डाला है। जोखिम को अच्छी तरह समझने के बावजूद तिब्बती लेखक अभी भई तिब्बत के बारे में साहसी ढंग से लेख लिखकर अपने मत प्रकट करते है और आपस में विचार विमर्श करते है । तिब्बत में जन्में और भारत में बडे हुए संगीतविद् न्गावांग चोईफेल अब न्यूयॉर्क में रहते है। आधे दशक तक चीनी शासन के दौरान तिब्बती लोककलाओं पर पडे प्रभावों को जानने के लिए वह 1995 में अपने जन्मस्थान पर गए। लेकिन , जासूस होने का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 18 सालकी जेल की सजा सुनाई गई । शुक्र है कि अंतर्राष्ट्रीय विरोध के चलते उन्हें 2002 में रिहा कर दिया गया । अब उन्होंने तिब्बत इन सॉन्ग शीर्षक से एक डॉक्यूमेंटरी बनाई है , जो संगीत एंव नृत्य की उजडती दुनिया औऱ उसकी हत्या पर रोष प्रतिबिम्बित करती है। डॉक्यूमेंटरी में चोईफेल खुद अपनी कहानी बयां करते हुए उसे समग्र जनता से जोडते है। उन्होंने जो रास्ता अपनाया, वह प्रवासी तिब्बतीयों की कहानी और उनकी बढती निराशा का प्रतीक है। यह डॉक्यूमेंटरी फिल्मकार के 1995 की यात्रा के जब्त न किए जा सके फुटेज , अभिलेखागार के फुटतेज और भारत स्थित धर्मशाला में रहने वाले कलाकारों एंव शरणार्थियों के साक्षात्कारों का ताना -बना बुनते हुए कभी अति -जीवंत रही तिब्बती कला परम्परा पर रोशनी डालती है। यह डॉक्यूमेंटरी 1950 के हमले , हान चीनी लोगों की घुसपैठ, 1959 ,1969 ,1988 और 2008 के तिब्बती विद्रोहों के इतिहास जैसी है। पर मुख्य फोकस देश की संस्कृति पर चीन के सुनियोजित दमन पर है। इसमें एक ओर दशकों तक सार्वजनिक रुप से गाने -बजाने और नृत्य पर रोक दर्शई गई है तो दूसरी ओर साम्यवादी फौज के परेड मार्च से संबंधित गाने और चीनी पॉप संगीत के चौबीसी घंटे लाउडस्पीकर पर बजाने को चित्रित किया गया है। तिब्बतियों का संघर्ष स्पष्ट दर्शाता है कि संगीत भी विरोध आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभा सकता है और विरोध के सभी तौर तरीकों में मौन सबसे अधिक ताकतवर विरोध का रुप है। डॉक्यूमेंटरी में उन तीन महिलाओं के साक्षात्कार है, जिन्होंने चीन का राष्ट्रीय गीत गाने से इंकार किया था, जिस पर जेल में डालकर उनकी निर्मम पिटाई की गई । लेकिन , ये महिलाएं भाग्यशाली है , वर्ना पांच अन्य कैदियों ने दम तोड दिया था।


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