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बतें हैं बातों का क्या

June 3, 2013

Vijay-Kranti-The-Photographerलेखक: विजय क्रांति

(चीन मामलों के जानकार)

चीन के प्रधानमंत्री ली केचियांग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान यहां की महानता के बारे में काफी कुछ कहा है, जो कूटनीति में स्वाभाविक है। पर, उनकी बातों से यह अर्थ निकाल लेना कि भारत के प्रति चीन के रूख में कोर्इ तब्दीली आ रही है, निहायत ही बचकाना होगा। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि द्विपक्षीय रिश्तों के मामले में हर देश अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे उपर रखता है। चीन के प्रधानमंत्री की तरफ से भारत की तारीफ में कहे गए शब्दों से गदगद होने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चंद दिनों पहले ही चीनी सेना हमारी सीमा में घुस आर्इ थी और 19 दिनों तक जमी रही। ली के समर्थन में कहा जा रहा है कि उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना। लेकिन क्या हम इसे झुठला सकेंगे कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद चीनी सेना का पहला आक्रामक अभियान भारत के खिलाफ ही हुआ।

दरअसल, चीन में आंतरिक कलह चरम पर है, लेकिन मीडिया पर नियंत्रण के चलते वहां की घटनाओं से हम बहुत कम रूबरू हो पाते हैं। चीन में सत्तारूढ़ दल के भीतर भी आपसी धड़े हैं। सेना के विभिन्न अंग भी आपसी धड़ेबंदी का शिकार हैं। वहां के विकास माडल के कारण बढ़ रही असमानता के चलते उभर रहा असंतोष पिछले कुछ वर्षों के दौरान नजर आने लगा है। व्यावसायिक उददेश्यों के कारण लोगों से जबरन जमीनें छीनी गर्इ हैं और मानवाधिकार हनन भी आम बात है। ऐसे में जनता की नाराजगी का ज्वार लगातार उमड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षो से वहां लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इन्हीं के चलते चीन लगातार अपने पड़ोसियों के साथ बेवजह विवाद पैदा करता रहता है, ताकि जनता का ध्यान आंतरिक मुददों से भटकाया जा सके। जापान, दक्षिण कोरिया, कंबोडिया, वियतनाम, रूस और भारत के साथ उसके विवाद इसका उदाहरण हैं।

गौरतलब है कि मौजूदा वक्त में विदेश नीति को प्रभावित करने में सबसे ज्यादा योगदान आर्थिक नीतियों का होता है। पिछले साल दोनो देशों के बीच 66 अरब डालर का द्विपक्षीय व्यापार रहा है। लेकिल सच्चार्इ यह भी है कि भारत से किए जाने वाले आयात के मुकाबले चीन हमें 29 अरब डालर का ज्यादा निर्यात करता है। द्विपक्षीय व्यापार को 2015 तक 100 अरब डालर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन इस असंतुलन को ठीक करने के कोर्इ संकेत नहीं है।

व्यापार असंतुलन के अलावा चीन को लेकर हमारी आर्थिक नीति में भी भारी कमियां हैं। हमारे यहां से चीन को सबसे ज्यादा लौह अयस्क का निर्यात होता है। भारत का लौह अयस्क दुनिया में सबसे बेहतरीन माना जाता है, क्योंकि इसमें 64 फीयदी लौह होता है। चीन इससे स्टील बनाकर न सिर्फ हमें निर्यात करता है, बल्कि विश्व बाजार में भी वह भारतीय इस्पात कंपनियों को नहीं टिकने दे रहा है। इस तरह कच्चे माल के रूप में हमारे ओर से होने वाले निर्यात का भी चीन भारत के विरूद्ध इस्तेमाल कर रहा है।

दूसरे, तैयार माल का हाल यह है कि हमारे यहां की कर्इ कंपनियां उत्पादन बंद करके चीनी उत्पादों का आयात कर रही हैं और फिर अपरी मुहर लगाकर बाजार में उतार देती हैं। चीन के उत्पादों ने हमारे खिलौना उद्योग को नष्ट कर दिया। रेशम उद्योग भी आखिरी सांसें गिन रहा है और यही हालत इस्पात उद्योग की है। कुछ महीने पहले अफ्रीका के कुछ देशों में चीन से आर्इ ऐसी घटियां दवाएं पकड़ी गर्इ, जिन पर चीनी कंपनियों ने मेड इन इंडिया की मुहरें लगा रखी थी। इसका इरादा भारत की आर्थिक साख गिराना था। ऐसे में अब जरूरी है कि हम अपनी विदेश नीति से जुड़ी आर्थिक नीतियों को भी व्यावहारिक बनाएं। व्यावहारिक का मतलब द्विपक्षीय व्यापार में कमी करना नहीं है, बलिक हमें चीन पर इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि वह अपने यहां भारतीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धा का मौका दे। इसके अलावा हमें तैयार उत्पाद के निर्यात की तरफ ध्यान देना चाहिए।

रही बात सीमा विवाद की, तो इसका कोर्इ समाधान रातोंरात नहीं निकल सकता। इस मुददे पर अब तक हमने दब्बूपन ही दिखाया है। जब चीन ने 1951 में तिब्बत पर कब्जा किया, तो हम न केवल आंख मूंदे रहे, बल्कि उसके झूठे दावों का समर्थन करते रहे।

यही वजह है कि चीन तिब्बत का इस्तेमाल भारत विरोधी आतंकवादी और विभाजनकारी संगठनों को प्रशिक्षण देने, शरण देने और हथियार आपूर्ति करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है। आज वह हमें पाकिस्तान, पाक आधिकृत कश्मीर, नेपाल, म्यांमार और बांग्लदेश के जरिये घेरने में लगा हुआ है। तिब्बत को फौजी छावनी में बदलने के अलावा वह हमारी सीमा के साथ-साथ सड़कों का एक लंबा जाल बिछा चुका है। नेपाल में सड़कें बनाकर उसने पशिचम बंगाल, बिहार और उत्तराखंड तक सीधी पहुंच बना ली है।

तिब्बत पर कब्जे का ही नतीजा है कि चीन अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताकर उस पर दावा जताने लगा है। हमारे नीति नियंताओं को समझना चाहिए तिब्बत सिर्फ दलार्इ लामाए मानवाधिकार और सांस्कृतिक मुददा नही है, बलिक वह हमारी सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा है। अरूणाचल प्रदेश, असम, उत्तराखंड, हिमाचल और लददख में उसके जमीनी दावों का सबसे कारगर जवाब यह है कि उसे बता दिया जाए कि तिब्बत पर उसका कब्जा अवैध है, इसलिए तिब्बत से जुड़े इन भारतीय इलाकों पर उसके सभी दावे झूठे हैं। जो आर्थिक रिश्तों का हवाला देकर चीन के प्रति सख्त विदेश का हवाला देकर चीन के प्रति सख्त विदेश नीति की मुखालफत करते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि व्यापार के नाम पर देश की सुरक्षा और संप्रभुता का सौदा नहीं किया जा सकता।


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