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शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तिब्बत में पारंपरिक बौद्धों और बौद्ध धर्म को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है। यहां तक कि वहां सबसे प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को भी नष्ट किया गया है।
तालिबान द्वारा २००१ में विशाल बामियान बुद्ध की मूर्तियों पर बमबारी के बीस साल हो चुके हैं। इसने न केवल दुनिया भर के लाखों बौद्धों की भावनाओं को आहत किया, बल्कि यह तालिबान शासन के त्वरित पतन और अफगानिस्तान को अगले दो दशकों तक निरंतर अराजकता और संघर्ष में झोंकने का भी कारण बना।
दुर्भाग्य से, तिब्बत में ९९ फीट ऊंची एक और विशाल बुद्ध प्रतिमा को १२ दिसंबर २०२१ को तालिबान द्वारा नहीं, बल्कि चीनी सरकार द्वारा नष्ट कर दिया गया। प्रतिमा का निर्माण स्थानीय चीनी सरकार से सभी आवश्यक अनुमति प्राप्त करने के बाद पूर्वी तिब्बत में ड्रागो के स्थानीय समुदाय के योगदान से किया गया था। विशाल बुद्ध प्रतिमा के निर्माण का प्राथमिक कारण समुदाय द्वारा आगे की प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए दैवी कृपा का आह्वान करने का सामूहिक निर्णय था, क्योंकि इस क्षेत्र में हाल के वर्षों में अभूतपूर्व संख्या में जंगल की आग, भूकंप, बाढ़ और भूस्खलन देखा गया था। विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, मूर्ति को नष्ट करने से पहले, चीनी सरकार ने एक स्कूल को भी जबरदस्ती ध्वस्त कर दिया, जहां से इस क्षेत्र में लगभग सौ छात्रों ने शिक्षा ली थी। इतना ही नहीं चीनी सरकार ने ४५ बौद्ध प्रार्थना-चक्रों को भी तोड़ दिया।
यह तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता के चीनी सरकार के दावे के बिल्कुल विपरीत है और पूरे तिब्बत में बेशुमार धार्मिक दमन का संकेत है। जिस क्षेत्र में प्रतिमा को गिराया गया है, उस क्षेत्र में दो चीनी काउंटी प्रमुखों द्वारा किए गए विनाश ने तिब्बतियों की सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं को गहरा ठेस पहुंचाया है। इस कारण से उनमें भय व्याप्त हो गया है और उनके दिलो-दिमाग में चीनियों के प्रति घृणा की स्थायी भावना गहरी हो गई है। १९५१ के सत्रह सूत्री समझौते में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बती परंपरा और धर्म का सम्मान करने का वादा किया था। इस समझौते पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद हस्ताक्षर किया गया था। हालांकि, चीन की दमनकारी कार्रवाई माओ की सांस्कृतिक क्रांति (१९६६-१९७६) के समय से ही लगातार तिब्बती बौद्ध धर्म पर कहर ढा रही है और नवंबर २०१२ में शी जिनपिन के सत्ता में आने के बाद नए उत्साह के साथ इस दमन को तेज किया गया है। इसी समय में चीन, तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान (झिंझियांग) और भीतरी मंगोलिया में भी कठोर दमन शुरू किया गया है। इस निरंतर उत्पीड़न ने धार्मिक स्वतंत्रता के लिए उपलब्ध पहले से ही कम जगह को और कम कर दिया है, जिससे स्थिति पूरी तरह खराब हो गई है।
तिब्बती संस्कृति और धर्म नाभिनाल की तरह परस्पर जुड़े हुए हैं और उनमें अंतर करना मुश्किल है। तिब्बती बौद्ध धर्म की सभी परंपराओं का तिब्बती संस्कृति के संवर्द्धन में अहम योगदान है। यह योगदान शिक्षा के प्रचार और न केवल धर्म के संरक्षण के मामले में, बल्कि तिब्बत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और भाषा के संवर्द्धन में भी अहम भूमिका है। तिब्बत में शिक्षा की प्रणाली स्थापित होने से पहले भी समग्र रूप से तिब्बती मठों ने शिक्षण और विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है। लगभग हर मठवासी केंद्र का पाठ्यक्रम विशिष्ट परंपराओं के अनुसार मामूली अंतर के साथ लगभग समान है।
तिब्बत में १३०० वर्षों से भी अधिक पुराना साहित्य है। यह सीमा और प्रभाव दोनों के संदर्भ में एशिया की महान साहित्यिक परंपराओं में से एक है। इसके अलावा, तिब्बती बौद्ध परंपरा के भीतर कुछ सबसे आवश्यक धार्मिक दर्शन हैं जो न केवल किताबी माध्यम से बल्कि गुरु-शिष्य परंपरा से मौखिक रूप में चले आ रहे हैं। तिब्बती दार्शनिक दृष्टिकोण ने शैक्षिक संस्थानों के नियंत्रण में रहने वाले लोगों के धार्मिक और राजनीतिक अधिकार को मजबूत किया है और वे तर्क और दर्शन में अपेक्षित प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। नतीजतन, तिब्बती मठ राष्ट्रीय पहचान, भाषा, धर्म और सांस्कृतिक परंपराओं को दृढ़ता से प्रभावित करते हैं।
हालांकि, सीसीपी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) ने न केवल तिब्बत के भीतर बल्कि तिब्बत के बाहर भी तिब्बती बौद्ध धर्म को मिटाने के लिए कई तरीके अपनाए हैं। कई स्थानों पर तिब्बती मठों को ध्वस्त कर दिया गया है या भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या पर प्रतिबंध लगाकर उसे बुरी तरह से सीमित कर दिया गया है।
उदाहरण के लिए, सेरा मठ की मठवासी आबादी ८,००० और १०,००० भिक्षुओं के बीच थी, जिससे यह डेपुंग मठ के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मठ बन गया था। १९५९ में चीनी सेना द्वारा ल्हासा पर पूरी तरह से कब्जा करने के दौरान सेरा मठ पर बमबारी की गई और मठों के आवासीय क्वार्टर पूरी तरह से नष्ट हो गए। वर्तमान में, चीनी अधिकारियों द्वारा निर्धारित सीमाओं के कारण सेरा मठ में केवल ५०० भिक्षुओं की आबादी रह गई है।
पुरस्कार विजेता पत्रकार बारबरा डेमिक ने अपनी किताब, ‘ईट द बुद्धाः लाइफ एंड डेथ इन अ तिब्बतन टाउन’ में उल्लेख किया है कि वर्तमान में चीनी कब्जे वाले तिब्बत में कोई भी अठारह वर्ष से कम उम्र का भिक्षु नहीं बन सकता है और सभी भिक्षुओं को सीसीपी के प्रचार निर्देश व्याख्यान गुजरना पड़ता है। यह पूरी तरह से प्राचीन तिब्बती परंपराओं का उल्लंघन है।
चीनी सरकार द्वारा किया जा रहा यह निरंतर संशोधन तिब्बतियों के दिलो- दिमाग में जमे धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक पहचान को उत्पीड़न और यातना के माध्यम से बदलने के लिए किया जा रहा है। पूरे तिब्बत में मठों की आंतरिक गतिविधियों को नियंत्रित करने का प्रयास बढ़ रहा है। तिब्बती बौद्ध धर्म सहित विभिन्न धर्मों (झिंझियांग क्षेत्र में इस्लाम जैसे अन्य धर्मों को भी गहराई से प्रभावित किया गया है) के खिलाफ ये सभी कठोर नीतिगत बदलाव शी जिनपिंग के बढ़ते दमन और तिब्बत और पूरे चीन में लाखों आस्थावानों की धार्मिक भावनाओं के प्रति उनकी उदासीनता को प्रदर्शित करते हैं।
१२ अगस्त २०२१ को एक असंतुष्ट विद्वान हू ज़िमो (छद्म नाम) द्वारा लिखित ‘चाइना : फर्स्ट सीसीपी नेशनल कांफ्रेंस ऑन रिलिजियस हेलड सिंस २०१६ (चीनः २०१६ के बाद से आयोजित धर्म पर पहला सीसीपी राष्ट्रीय सम्मेलन)’ शीर्षक वाला शोध आलेख विस्तार से बताता है कि कैसे राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने धर्म पर और अधिक कठोर कार्रवाई की योजना की घोषणा की थी। लेखक ने आगे विस्तार से बताया कि सम्मेलन में सीसीपी के सभी शीर्ष नेताओं ने भाग लिया था और इसी पैमाने पर इन दमनों की योजना बनाई गई थी। उस भाषण में शी ने उन ‘समस्याओं’ का उल्लेख किया था जो उनके अनुसार अभी भी धार्मिक प्रचार में मौजूद हैं। शी जिनपिंग ने अधिक मार्क्सवाद, इंटरनेट की निगरानी और चीनीकरण के बारे में बताया था। उन्होंने सोशल मीडिया पर ‘धार्मिक प्रचार’ को रोकने की भी मांग की।
इन योजनाओं को कैसे सामने लाया गया है इसका एक उदाहरण ब्लूड नामक सबसे बड़े सामाजिक नेटवर्क में से एक है, जिसे २०१२ में लॉन्च किया गया था। यह नेटवर्क समलैंगिक समुदाय में चीन में काफी प्रसिद्ध है। लेकिन १२ अप्रैल २०२१ को चेन ताओ द्वारा लिखे एक लेख ‘चाइनीज एलजीबीटी सोशल मीडिया ऐप बैन्ड यूजर्स फ्रॉम पोस्टिंग रिलिजियस कंटेंट (चीनी एलजीबीटी सोशल मीडिया ऐप ने उपयोगकर्ताओं को धार्मिक सामग्री पोस्ट करने पर प्रतिबंध लगा दिया)’ में विस्तार से बताया गया है कि चीन में समलैंगिकों को इस नेटवर्क पर धार्मिक मामलों पर अपनी राय व्यक्त करने की सख्त मनाही कर दी गई है। हालांकि धार्मिक पोस्ट अभी भी जारी हैं, लेकिन अगर वे चीनी अधिकारियों द्वारा पकड़े जाते हैं तो लेखकों के खाते अवरुद्ध कर दिए जाते हैं।
३ जनवरी २०२१ को सीसीपी के मुखपत्र- द ग्लोबल टाइम्स ने ‘ऑब्जर्विंग हिस्टोरिकल कन्वेंशनः द रिइनकार्नेशन ऑफ तिब्बती लिविंग बुद्धा अंडर सेंट्रल गवर्नमेंट ज्यूरिस्डिक्शन’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया। इस लेख में लेखक ने उल्लेख किया कि जीवित बुद्ध का पुनर्जन्म तिब्बती बौद्ध परंपरा के नेताओं के उत्तराधिकार की समस्या को सुलझाने के लिए है। जनवरी २०१६ में ‘स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ रिलिजियस अफेयर्स (धार्मिक मामलों के सरकारी प्रशासन)’ ने घोषणा की थी कि सभी पुनर्जन्म वाले लामाओं को सीसीपी द्वारा अनुमोदित कराया जाना चाहिए। पुनर्जन्म वाले लामाओं की इस सूची में सभी आधिकारिक ‘जीवित बुद्ध’ भी शामिल किए गए थे। निर्वासित बुद्ध १४वें दलाई लामा का नाम भी सूची में पाया गया। सीसीपी यह सुनिश्चित करने के लिए बौद्ध धर्म के हर पहलू को अपने नियंत्रण में लाने के लिए काम कर रही है कि केवल उन आध्यात्मिक हस्तियों को ही अनुमति दी जाए, जिनका सरकार द्वारा ‘अनुमोदन’ किया गया हो।
हाल ही में १४ दिसंबर २०२१ को सोफी रिचर्डसन द्वारा लिखे गए आलेख ‘चाइनीज अथॉरिटीज डबल डाउन ऑन तिब्बतन रिइनकार्नेशन (तिब्बती पुनर्जन्म पर चीनी प्राधिकरण का डबल डाउन)’ में लेखक ने संकेत दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी का उद्देश्य अगले दलाई लामा के चयन पर भी पूर्ण नियंत्रण सुनिश्चित करना है। तिब्बत नीति संस्थान के पूर्व निदेशक थुब्टेन सम्फेल ने लिखा है कि यदि बीजिंग द्वारा अगले दलाई लामा की नियुक्ति सफल हो जाती है, तो यह बिना एक गोली चलाए पूरे बौद्ध हिमालयी क्षेत्र को अपने प्रभाव में ले लेगा।
तिब्बत में शिक्षा और राष्ट्रीय पहचान के क्षेत्र में तिब्बती मठों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। तिब्बती मठों में प्रदान किए गए विद्वानों के प्रशिक्षण ने क्षेत्र की संस्कृति, धर्म और भाषा को बनाए रखा है। मठ शिक्षा प्रदान कर रहे हैं जो अंततः परंपरा में विश्वास लाता है और किसी की (लुप्तप्राय) राष्ट्रीयता के विलुप्त होने को रोकने के लिए साधन और क्षमता लाता है। इस बात से कम्युनिस्ट विचारधारा का कड़ा विरोध है। इसलिए तिब्बत में होने वाले अधिकांश आत्मदाह (चीनी उत्पीड़न का विरोध) भिक्षुओं द्वारा किया जाता है। यही कारण है कि शी जिनपिंग तिब्बत में पारंपरिक बौद्ध धर्म के खिलाफ हैं और इससे पता चलता है कि क्यों उनकी सेना प्रतिष्ठित बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ रही है।
’डॉ. त्सेरिंग डोल्मा तिब्बत नीति संस्थान में शोध अध्येता हैं। यहां व्यक्त किए गए विचार उनके निजी है और जरूरी नहीं कि वे तिब्बत नीति संस्थान के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हों। यह लेख मूल रूप से १६ जनवरी २०२२ को ग्लोबल ऑर्डर में प्रकाशित हुआ था।