
पैंगोंग त्सो के अलावा तनाव के अन्य बिंदुओं पर से सैनिकों की वापसी की धीमी प्रगति के साथ-साथ कायम गतिरोध को लेकर भारत की नाराजगी साफ झलकती है। तनाव वाले शेष बिंदुओं से सैनिकों को पीछे हटाने में कोई गति नहीं दिखाई दे रही है, क्योंकि ‘9 अप्रैल को भारतीय सेना के साथ सैन्य वार्ता के 11 वें दौर में चीनी पक्ष ने अपने रुख में कोई लचीलापन नहीं दिखाया।
चिंताजनक खबरें यह भी हैं कि चीन ने प्रशिक्षण क्षेत्रों में और सैनिकों को तैनात किया है। चीन की दीर्घकालिक योजनाएं स्पष्ट रूप से दक्षिण चीन सागर (एससीएस) के अपने पूर्व के प्रयोगों को दोहराने की है, जिसके तहत जमीनी तथ्यों को बदलकर अपने पक्ष में करने का इरादा साफ दिखता है।
चीनी कार्रवाइयों के विश्लेषण से पता चलता है कि चीन जान-बूझकर अन्य स्थानों पर सैनिकों की वापसी प्रक्रिया में देरी कर रहा है। चीनी गोगरा पोस्ट और हॉट स्प्रिंग्स के पास विवादित क्षेत्रों में भारत की गश्त को रोक रहा है। ये दोनों स्पॉट पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के गालवान सब-सेक्टर में चांग चेनमो नदी के करीब हैं। जबकि हॉट स्प्रिंग्स चांग चेनमो नदी के उत्तर में है। गोगरा पोस्ट उस बिंदु के पूर्व में है जहां नदी गलवान घाटी से दक्षिण-पूर्व में आने और दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़़ते हुए एक हेयरपिन मोड़ लेती है। चीन की योजना स्पष्ट रूप से इस स्थिति को धीरे-धीरे स्थिर करने की है। भारतीय सेना जहां पहले गश्त कर रही थी, वहां उसे गश्त से रोकना चीन के लिए लाभ की स्थिति है।
भारतीय विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने हाल ही में द्विपक्षीय संबंधों के रणनीतिक आयाम पर स्पष्टता के साथ टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि ‘संबंध एक चौराहे पर है और हम किस दिशा में जाते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि चीनी पक्ष दोनों देशों के बीच हुए समझौतों का पालन करेगा या नहीं।’
उन्होंने आगे कहा कि ‘अन्य क्षेत्रों में सहयोग के साथ सीमा पर तनाव जारी नहीं रह सकता है।’ उन्होंने यह भी बताया कि अगर रक्तपात के साथ सीमा पर शांति भंग होती है तो इस तरह के कृत्य निश्चित रूप से संबंधों को प्रभावित करने वाले हैं। जयशंकर ने यह भी स्पष्ट किया कि जब एक तरफ से रिश्ते का उल्लंघन किया गया हो तो उसे संभालना मुश्किल होता है।
कटू सत्य यह है कि पिछले कुछ वर्षों में चीन अपने चारों ओर के सीमाई क्षेत्रों में अधिक से अधिक आक्रामक हो गया है। चीन ने अपने दावे पर जोर देने के लिए जमीनी हकीकत में एकतरफा बदलाव किया है। इसने कृत्रिम द्वीपों का निर्माण किया और उन्हें दक्षिण चीन सागर में हथियार बनाया। पूर्वी चीन सागर में वायु रक्षा पहचान क्षेत्र की स्थापना की और पूर्वी लद्दाख में क्षेत्रों को हथियाने की कोशिश की।
चीनी आबादी को अति-राष्ट्रवाद और सुविधावादी विचारधारा की घुट्टी पिलाई जाती है। हाई वोल्टेज झूठे प्रचार में यह प्रस्तुत किया जाता है कि उसके चारो ओर के क्षेत्र चीन के थे, जो उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी ताकतों से हार गए थे। ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है और यहां तक कि उनके तर्कों को प्रमाणित करने के लिए गलत तथ्यों को गढ़ा जाता है।
चीन के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने में भारत की वर्षों की हिचकिचाहट से चीन की यह धारणा मजबूत हुई है कि भारत उसकी प्रगति का विरोध नहीं करेगा। कुछ विशेषज्ञों ने बताया कि भारत ने चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई है।
उधर, चीन रक्षा और परमाणु क्षेत्रों में पाकिस्तान का समर्थन करता रहता है। संयुक्त राष्ट्र में पाक आतंकवादियों को समर्थन प्रदान करता है, आक्रामक रूप से पूरे अरुणाचल प्रदेश की मांग करता रहता है, हिंद महासागर में भारत के चारों ओर ठिकाने बनाता है, जिसका भारत के लिए गंभीर सुरक्षा खतरे और निहितार्थ है और एनएसजी में भारत के प्रवेश का विरोध करता है। दूसरी ओर भारत सीमा पर शांति स्थापना को लेकर ही संतोष दिखा रहा था और मानता था कि सीमा समझौता उसके सुरक्षा हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त थे। बावजूद इसके कि चीन चुपके से क्षेत्रों को हथियाने का प्रयास कर रहा था जैसा कि 2013 की देपसांग की घटना से स्पष्ट भी हो गया था।
यह पाकिस्तान और नेपाल को भी भारत के खिलाफ नकशानवीसी की आक्रामकता में लिप्त होने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद-370 के अधिकतर प्रावधानों को निरस्त करने की वर्षगांठ पर एक नया नक्शा प्रदर्शित किया, जिसमें दिखाया गया कि पाकिस्तान की सीमा चीन के साथ लगती है।
20 मई 2020 को नेपाल सरकार ने भारत के उत्तराखंड राज्य के पूर्वी कोने में मौजूद कालापानी को नेपाल के हिस्से के रूप में दिखाते हुए अपना खुद का नक्शा लॉन्च किया। इससे भी अधिक चिंताजनक और उत्तेजक कदम भूटान के क्षेत्रों पर कब्जा करना है। मीडिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि चीन ने भूटान के अंदर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर एक पूरा शहर, सड़कों का जाल, एक बिजली संयंत्र, दो सीपीसी भवन, सैन्य और पुलिस चौकियों के साथ एक संचार बेस बना लिया है। भूटान में, सिलीगुड़ी कॉरिडोर को खतरे में डालते हुए ट्राइजंक्शन को दक्षिण की ओर लाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं।
बड़ी तस्वीर से पता चलता है कि हमारी सीमा समस्याएं चीन द्वारा तिब्बत पर अवैध कब्जे के कारण उत्पन्न हुई हैं। चीन तिब्बत पर कब्जा करने के बाद अपने क्षेत्रों का विस्तार करने के लिए अथक प्रयास कर रहा है। वस्तुस्थिति इस आयाम को मान्यता देने की मांग करता है और यह सुनिश्चित करने के लिए एक दीर्घकालिक योजना बनाने की जरूरत बताता है कि तिब्बत को वास्तविक स्वशासन मिले। हालिया घटनाक्रम इसके पक्ष में हैं।
इसलिए, हमारी तिब्बत नीति की समीक्षा महत्वपूर्ण है।
निर्वासित तिब्बती दलाई लामा के उत्तराधिकारी पर निर्णय लेने के चीनी प्रयासों और तिब्बतियों के उत्पीड़न को लेकर गंभीर रूप से चिंतित हो रहे हैं। उनमें से एक वर्ग अब चीन से स्वतंत्रता की मांग करता है जैसा कि निर्वासित तिब्बती सरकार के पूर्व राष्ट्रपति लोबसांग सांगेय के बयान से स्पष्ट है कि तिब्बती ध्वज ल्हासा में पोटाला पैलेस के ऊपर फहराएगा और दलाई लामा मुक्त होकर वहां विचरण करेंगे।
तिब्बत पर अपने कब्जे के बाद से ही चीन दमनकारी नीतियों का अनुसरण कर रहा है, जिससे वहां के निवासियों को अत्यधिक परेशानी हो रही है। अगस्त 2020 में तिब्बत पर सातवीं केंद्रीय संगोष्ठी में लिए गए निर्णय का उद्देश्य तिब्बती संस्कृति और धर्म को नष्ट करना और असंतोष को बड़े पैमाने पर कुचलना था। शी ने उपरोक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए तीन चरणों की योजना बनाई है। पहला, बौद्ध संस्कृति का चीनीकरण; दूसरा, सीसीपी की राजनीतिक और वैचारिक शिक्षा को तिब्बती स्कूलों में पुनर्शिक्षा शिविरों के माध्यम से लागू करना और तीसरा, तिब्बत की सीमा सुरक्षा को मजबूत करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि तिब्बतियों का बाहरी दुनिया से कोई संबंध नहीं है। तिब्बतियों पर व्यापक हाई-टेक निगरानी रखी जाती है। इस कारण अतीत में कई तिब्बतियों ने यातना और दमन के कारण आत्महत्या कर ली है।
हालाँकि, चीन ने 21 मई 2021 को एक श्वेत पत्र जारी किया, जिसमें भारत, भूटान और नेपाल के साथ तिब्बत की सीमा पर स्थित दूरदराज के गांवों में बुनियादी ढांचे के विकास के उसके प्रयासों को प्रदर्शित किया गया। ‘1951 से तिब्बत: मुक्ति, विकास और समृद्धि’ शीर्षक वाले दस्तावेज़ ने तिब्बत के निवासियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों को विकसित करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। हालांकि, यह सच्चाई से कोसों दूर है। बेशक, वे सीमा पर बुनियादी ढांचे का विकास कर रहे हैं लेकिन अपने आगे के विस्तार के लिए, न कि तिब्बतियों की मदद करने के लिए।
एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह है कि पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका ने तिब्बत मुद्दे के प्रति अपना दृष्टिकोण बदला है। अमेरिकी दृष्टिकोण अब मानवाधिकारों के उल्लंघन और तिब्बतियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने- दोनों को ध्यान में रखता है। तिब्बतियों की मदद के लिए अमेरिका में तिब्बतन पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट- 2020 को मंजूरी दी गई है। यह अधिनियम अमेरिकी नीति को आधिकारिक बनाता है कि दलाई लामा, विशेष रूप से वर्तमान दलाई लामा के पुनर्जन्म के संबंध में निर्णय लेने का अधिकारी तिब्बती बौद्ध नेताओं और तिब्बती लोगों को मानता है। साथ ही इस कानून के तहत अमेरिका ल्हासा में एक वाणिज्य दूतावास स्थापित करेगा और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) को दुनिया भर में तिब्बती आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाली वैध संस्था मानता है। अमेरिका ने तिब्बत के लिए विशेष समन्वयक भी नियुक्त किया है, जो तिब्बतियों के राजनीतिक अधिकारों और संप्रभुता को मान्यता देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
भारत को तिब्बतियों के धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका के साथ अपने दृष्टिकोण को समन्वित करने की आवश्यकता है। भारत 2003 के समझौते से बाध्य नहीं है क्योंकि यह इस समझ पर आधारित था कि ‘कोई भी पक्ष दूसरे के खिलाफ बल का प्रयोग नहीं करेगा या धमकी नहीं देगा।’ पूर्वी लद्दाख में बल प्रयोग कर एकतरफा कार्रवाई करते हुए चीन ने इस समझौते का उल्लंघन किया है और वह समझौता अब निरस्त हो गया है। अब भारत को तुरंत अपनी तिब्बत नीति की समीक्षा करनी चाहिए। इस दिशा में तिब्बतन पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट एक नजीर बन सकता है और भारत उसका अपना संस्करण तैयार कर सकता है। साथ ही तिब्बतियों की समस्याओं के सीधे संपर्क में रहने के लिए एक समन्वयक नियुक्त कर सकता है।