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भारत को अपनी तिब्बत नीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत क्यों है

November 24, 2020

द गार्जियन, क्लाउडे अर्पि

20 नवंबर को केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) ने गर्व से घोषणा की कि उसके सिक्योंग (राष्ट्रपति) लोबसांग सांगेय ने व्हाइट हाउस में प्रवेश किया था। धर्मशाला ने इसे ‘एक ऐतिहासिक उपलब्धि’ करार दिया, यह पहला अवसर था जब सीटीए प्रमुख को व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया गया था। इससे पहले नवंबर में ही डॉ. सांगेय को तिब्बती मुद्दों के लिए विशेष समन्वयक रॉबर्ट डेस्ट्रो से मिलने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्रालय में आमंत्रित किया गया था। अंतर इतना भर था कि यह इमारत व्हाइट हाउस नहीं थी, बल्कि इसके अगले दरवाजे पर आइजनहावर कार्यकारी भवन का एक विस्तार था।

निर्वासित तिब्बती सरकार, जिसे अब तक किसी भी देश द्वारा मान्यता नहीं दी गई है, को पहले अक्सर अमेरिकी प्रशासनिक भवनों में प्रवेश देने से इनकार किया जाता रहा है। प्रवेश देने से इनकार के पीछे का तर्क यह था कि अमेरिकी सरकार निर्वासित तिब्बती सरकार को मान्यता नहीं देती है। सीटीए की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि आज की यात्रा का निहितार्थ यह रहा है कि सीटीए की लोकतांत्रिक प्रणाली और उसके राजनीतिक प्रमुख- दोनों को  स्वीकृति मिल गई है।

यह यात्रा तिब्बती सरकार की आभासी मान्यता है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है। हालाँकि, यह निश्चित है कि निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपत,  जो जल्द ही अपना पद (और अपना सरकारी आवास) छोड़नेवाले हें, अपने उत्तराधिकारी को जितना संभव हो सके, इस मुद्दे पर आगे रखने के इच्छुक हैं।

तिब्बत के लिए ‘अगले दरवाजे’ की यात्रा एक सकारात्मक विकास है या नहीं, केवल भविष्य ही बताएगा। हालांकि, एक इच्छा है कि साउथ ब्लॉक (भारत सरकार) दलाई लामा और सीटीए अधिकारियों के साथ नियमित रूप से मिलना शुरू कर दे। यह निश्चित रूप से तिब्बत के भविष्य के लिए कहीं अधिक सार्थक होगा (भले ही धर्मशाला को इसका एहसास न हो)। जुलाई में धर्मशाला में विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला की यात्रा को इतना गोपनीय क्यों रखा गया और स्थानीय पत्रकारों को किसी भी फोटो को प्रकाशित नहीं करने के लिए क्यों कहा गया? इतना अनावश्यक नामसझी क्यों की गई? समझ से परे है।

दिलचस्प बात यह है कि सांगेय के व्हाइट हाउस के दौरे से कुछ दिन पहले ही अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने एक प्रस्ताव (एच. रेस. 697) पारित किया था। इसमें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के अंदर तिब्बतियों के लिए वास्तविक स्वायत्तता के लिए अभियान और मांग के महत्व की पुष्टि की गई है। साथ ही इसमें परम पावन 14वें दलाई लामा के कार्यों को वैश्विक शांति, सद्भाव और समझ को बढ़ावा देने वाला बताया गया है।’ अन्य बातों के अलावा, संकल्प प्रस्ताव में कहा गया कि ‘कांग्रेस के सदस्यों और परम पावन दलाई लामा के बीच अंतरराष्ट्रीय संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान पर चर्चा करने के लिए एक द्विदलीय, द्विसदनीय फोरम बुलाना फायदेमंद होगा।’ 18 नवंबर को बहस के दौरान प्रतिनिधि टेड योहो ने भी तिब्बतियों की धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के लिए बीजिंग की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ‘सीसीपी तिब्बत की संस्कृति और धार्मिक विरासत को अपने नियंत्रण के लिए खतरे के रूप में देखता है।’

अमेरिकी कानून के कुछ प्रावधानों को देखकर लगता है कि भारत को अपनी तिब्बत नीति पर फिर से विचार करना चाहिए (यह सुनिश्चित नहीं है कि दिल्ली की कोई तिब्बत नीति है!)। उदाहरण के तौर पर दलाई लामा के पुनर्जन्म पर यूएस स्टेटमेंट ऑफ पॉलिसी को लिया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि, भविष्य के 15वें दलाई लामा के चयन, शिक्षा और वंदना में ‘किसी भी लिखित निर्देश सहित 14वें दलाई लामा की इच्छा  निर्धारक भूमिका निभाएगी।’ इसी तरह से साउथ ब्लॉक (भारत सरकार का नई दिल्ली में मंत्रालय) बस यह कह सकता है कि यह दलाई लामा द्वारा अपने पुनर्जन्म के मामले में लिए गए सभी फैसलों का वह समर्थन करेगा और भारत के सम्मानित अतिथि के रूप में 15वें दलाई लामा का स्वागत करेगा, जैसे कि वर्तमान दलाई लामा का 1959 से कर रहा है। भारत को अमेरिका के प्रस्ताव की तरह विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।

फिर, तिब्बती पठार के पर्यावरण और जल संसाधनों के संरक्षण के संदर्भ में अमेरिकी विधेयक ‘तिब्बती पठार की उस महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है जिसमें ग्लेशियर, नदियां, घास के मैदान और अन्य भौगोलिक और पारिस्थितिक विशेषताएं शामिल हैं, जो वानस्पतिक विकास और जैव विविधता का समर्थन करने के लिए महत्वपूर्ण हैं और जो लगभग 1.8 अरब लोगों के लिए पेय की और आपूर्ति करता है।’ अमेरिका दूर है, लेकिन पड़ोस में स्थित भारत को इस तीसरे ध्रुव और दुनिया की छत पर जलवायु परिवर्तन के गहन नुकसान का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। यह बड़ी अफ़सोस की बात है कि नई दिल्ली इस विषय पर मौन साधे हुए है।

भारत के लिए सोचने लायक बात यह भी है कि अमेरिका ने तिब्बती मुद्दों के लिए एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति की है। हालांकि यह पद अपनी परिभाषा में समग्र होना चाहिए और अधिकारी को नई तिब्बत नीति के समन्वय के लिए न केवल विदेश मंत्रालय, बल्कि गृह, संस्कृति, शिक्षा या रक्षा मंत्रालय से भी निपटने में सक्षम होना चाहिए।

अमेरिकी कानून की धारा 618 में ‘तिब्बत से संबंधित राजनयिक प्रतिनिधित्व’ की बात कही गई है: ‘विदेश मंत्री को तिब्बत के ल्हासा में अमेरिका का वाणिज्य दूतावास खोलना चाहिए।’ इसके लिए तर्क दिया गया है कि, ‘(1) इससे संयुक्त राज्य अमेरिका को तिब्बत में यात्रा करने वाले अपने नागरिकों को कांसुलर सेवाएं प्रदान करने में सुविधा मिलेगी और (2) तिब्बत में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर नजर रखने में मदद मिलेगी।’ भारत के लिए इसी तरह की नीति बनाना महत्वपूर्ण है।

1947 में भारत को ल्हासा में एक पूर्ण-मिशन ब्रिटिश सरकार से विरासत में मिला था। उसमें आईसीएस अधिकारी ह्यूग रिचर्डसन ने भारतीय मिशन के पहले प्रमुख के रूप में कार्य किया, लेकिन अगस्त 1950 में चीनी भाषा बोलने में प्रवीण एक युवा व तेजतर्रार आईएफएस अधिकारी सुमुल सिन्हा को उनके स्थान पर नियुक्त किया गया। दुर्भाग्य से (और मूखर्ता से), प्रधानमंत्री ने 1952 में मिशन का स्तर कम करके उसे महावाणिज्य दूतावास बना दिया। इसके बाद दिसंबर 1962 तक ऐसा रहा। इसके बाद अज्ञात कारणों से साउथ ब्लॉक ने इसे बंद करने का फैसला किया। मैंने यह पता लगाने की कोशिश में कई साल बिताए हैं कि इसे आखिर क्यों बंद किया गया था। लेकिन मुझे आज तक इसका कोई जवाब नहीं मिला है। शायद मूर्खता और घबराहट ही इसके कारण रहे हों।

विदेश मंत्रालय द्वारा चीन-भारत सघर्ष से दो साल पहले तक के रखे गए तथ्य उस इतिहास को समझने में मदद नहीं करते है कि अक्तूबर 1962 से पहले के महीनों में वास्तव में वहां क्या हुआ था। उदाहरण के लिए, भारत में कौन जानता है कि ल्हासा में भारतीय महावाणिज्य दूत को सीमावर्ती युद्ध से पहले और उस दौरान तेरह महीने तक नजरबंद रखा गया था और भारत सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया या शिकायत भी नहीं की गई थी? एक और उदाहरण है कि अंतिम भारतीय काउंसल ल्हासा में अपने कार्यकाल के दौरान पोटाला पैलेस का दौरा भी नहीं कर सके। डॉ. पी.के. बनर्जी ने इसका कारण बताते हुए लिखा है कि मुंबई और कोलकाता में चीनी वाणिज्य दूतावास समस्याएं पैदा कर रहे थे- उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

ल्हासा में एक भारतीय महावाणिज्य दूतावास की उपस्थिति से लगभग 4000 भारतीय पीओडब्ल्यू के प्रत्यर्पण की प्रक्रिया को तेज करने में मदद मिल सकती थी, या कम से कम चीनी सरकार पर उन्हें छोड़ने के लिए कुछ दबाव डाला जा सकता था। लेकिन क्या दिल्ली की इसमें दिलचस्पी थी भी?

दशकों बाद भारत ने ल्हासा वाणिज्य दूतावास को फिर से खोलने की कोशिश की, लेकिन व्यर्थ। कहा जाता है कि सन 2000 के दशक में विदेश सचिव और बीजिंग में राजदूत रह चुके शिवशंकर मेनन ने इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन यह स्पष्ट है कि दिसंबर 1962 में मिशन को जल्दबाजी में बंद करना इसे फिर से खोलने की तुलना में आसान था। संयोग से नेपाल का एक प्रतिनिधि आज भी ल्हासा में है।

अमेरिका की नकल के बिना यह कुछ ऐसी बातें है जिन पर नई दिल्ली को जोर देना चाहिए। यह भारत का उसके हिम भूमि के साथ पुराने सांस्कृतिक, धार्मिक, भावुक संबंध के कारण वैध अधिकार है।

लेखक फ्रांस में जन्मे लेखक, पत्रकार, इतिहासकार, तिब्बतशास्त्री और चीन विशेषज्ञ हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।

निर्वासित तिब्बती सरकार को अब तक किसी भी देश द्वारा मान्यता नहीं दी गई है। अतीत में अक्सर अमेरिकी प्रशासन के भवनों में प्रवेश से उसके प्रतिनिधियों को इनकार किया जाता रहा है।  दोनों जगह प्रवेश से इनकार के पीछे तर्क यह था कि अमेरिकी सरकार निर्वासित तिब्बती सरकार को मान्यता नहीं देती है। सीटीए की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि आज की सिक्योंग की यात्रा से सीटीए की लोकतांत्रिक प्रणाली और उसके राजनीतिक प्रमुख- दोनों को स्वीकृति मिल गई है।


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