हिंदुस्तान, 3 अप्रैल, 2012
दिल्ली की सड़क पर एक शख्स शोलों में जल रहा था। आग की लपटें उसके बदन से लिपटकर धधक रही थीं। वह चिल्लाते हुए दौड़ रहा था और लोग टकटकी लगाए देख रहे थे। उस युवक ने तिब्बत की आजादी की खातिर और चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के विरोध में अपने शरीर में आग लगा ली थी। आखिरकार उसकी अस्पताल में मौत हो गई। वह तिब्बत की आजादी के लिए शहीद हो गया। आग के हवाले खुद को करने की यह कोई पहली कोशिश नहीं थी। चीन के दमन चक्र के खिलाफ दो दर्जन से ज्यादा तिब्बतियों ने अब तक खुद को आग के हवाले कर दिया है। लेकिन आत्मदाह के शोलों को बुझाने वाला कोई नहीं। अमेरिका की भी घिग्घी बंध जाती है। जब बात चीन की आती है, तो यूरोपीय देश भी बैकफुट पर आ जाते हैं। ऐसे में, भारत की तो बात ही छोड़ दीजिए। जब हम अपने मुद्दों को ठीक से चीन के सामने नहीं रख सकते, तो भला तिब्बतियों के मसले क्या उठाते?
चीन का दावा है कि तिब्बत उसका हिस्सा रहा है। इतिहास ऐसा नहीं कहता। 1911-12 में चीनियों ने थोड़े समय के लिए तिब्बत पर अधिकार जरूर जमाया था, पर तिब्बतियों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। मशहूर इतिहासकार एच ई रिचर्डसन भी मानते हैं कि तिब्बतियों को चीनी नहीं कहा जा सकता। चीनी दो हजार वर्षो से भी ज्यादा समय से तिब्बतियों को एक अलग नस्ल के रूप में देखते रहे हैं। फिर क्यों चीन की कम्युनिस्ट सरकार तिब्बतियों के अस्तित्व को मिटाने पर तुली है?