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एशिया में पानी के लिए लड़ाई शुरू हो चुकी है

January 21, 2015

Legend News, 19 जनवरी 2015

119201542810_save-waterस्पेन के जरागोज़ा शहर में सँयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हर साल जल-संसाधनों के बारे में आयोजित किया जाने वाला एक सम्मेलन हो रहा है। इस सम्मेलन में चर्चा का विषय है — पानी और सतत विकास, नज़रिया और कार्रवाई।

एशियाई देशों के लिए जल संसाधनों की उपलब्धि की समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। कहना चाहिए कि एशिया में पानी के लिए सचमुच लड़ाई शुरू हो चुकी है। यह लड़ाई सीमापार करके आर-पार गुज़रने वाली नदियों और उन जलाशयों के पानी के लिए हो रही हैं, जिनके किनारे-किनारे कई देश बसे हुए हैं। एशियाई नदियाँ आम तौर पर या तो तिब्बत के पहाड़ी इलाके में शुरू होती हैं या उनका उद्गम हिमालय पर्वतमाला के क्षेत्र में कहीं पर है। एशियाई देश बड़ी तेज़ी से विकास कर रहे हैं, इसलिए उन्हें ऊर्जा के एक साधन के रूप में बिजली की भी बेहद ज़रूरत है। बिजली की अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वे उन नदियों पर, जो तिब्बत और हिमालय में शुरू होती हैं, पन-बिजलीघर बना रहे हैं।

भारत, भूटान, नेपाल और पाकिस्तान — सभी देश इन नदियों पर करीब 400 बाँध बनाकर बिजली का उत्पादन करना चाहते हैं। इन बाँधों को बनाकर उन्हें क़रीब 160 हज़ार मेगावाट घण्टे बिजली मिलेगी। हिमालय की 32 घाटियों में से 28 घाटियों में बिजलीघरों का निर्माण करने की परियोजनाएँ बना ली गई हैं। अगर ये सभी परियोजनाएँ पूरी हो गईं तो हिमालय का इलाका एक ऐसा इलाका बन जाएगा, जहाँ सबसे ज़्यादा बाँध और पुश्ते बने होंगे।

चीन भी तिब्बत से बहने वाली सभी बड़ी नदियों पर कई बाँध बना रहा है। तिब्बत के इलाके से ब्रह्मपुत्र, मेकांग, यान्त्सी, चांग और दूसरी कई नदियाँ शुरू होती हैं। कहना चाहिए कि दुनिया की आधी आबादी तिब्बत के पानी पर ही निर्भर करती है। इन नदियों के ऊपरी हिस्सों में बाँध बन जाने से उनकी धारा घटकर पतली हो रही है और घाटियों में रहने वाले लोगों तक कम मात्रा में पानी पहुँचने लगा है। ख़ासकर इसका सबसे बड़ा नुक़सान किसानों को उठाना पड़ रहा है, जो सूखे के मौसम में इसी पानी से अपने खेतों की सिंचाई करके चावल की दूसरी फ़सल उगाते हैं। लेकिन जलवायु का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों द्वारा बनाए गए कम्प्यूटर-माडलों से हमें यह मालूम हुआ है कि हिमालय के हिमनद बड़ी तेज़ी से पिघलते जा रहे हैं और अगर उनके पिघलने की गति ऐसे ही जारी रहेगी तो वहाँ से निकलने वाली सभी नदियों की जलधारा वर्ष 2050 तक 10 से 20 प्रतिशत तक सिकुड़ जाएगी। इसका परिणाम यह होगा कि न सिर्फ़ बिजली का उत्पादन कम हो जाएगा, बल्कि इन नदियों के पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों के बीच आपसी तनाव भी काफ़ी बढ़ जाएगा।

नदियों पर बाँध बनाकर न सिर्फ़ किसानों को सिंचाई सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है, बल्कि नदियों के जैविक संसाधनों के लिए भी इससे ख़तरा पैदा होता है। बाँध न सिर्फ़ नदी का बहुत-सा पानी जमा कर लेता है, बल्कि नदी की धारा को भी संकुचित करता है। इससे नदी में गाद बढ़ जाने का ख़तरा भी पैदा होता है, जिससे नदी सूखने लगती है। इस तरह विकास करने के लिए या औद्योगिक विकास करने के लिए पनबिजलीघर बनाए जाते रहेंगे और पर्यावरण की क़ीमत पर, कृषि की क़ीमत पर, लोगों के जीवन की क़ीमत पर यह विकास होता रहेगा। इसलिए हमें प्रकृति की सुरक्षा की तरफ़ ख़ास ध्यान देना होगा और नदियों को जैसे का तैसा सुरक्षित बनाए रखकर ऊर्जा के नए स्रोतों को खोजना होगा।


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