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चीन में आत्मदाह परीक्षण

December 17, 2011

अबंती भटटाचार्य
16 दिसम्बर 2011, द एशिया टाइम्स आनलाइन

चीन में तिब्बतियों के आत्मदाह करने के कर्इ अन्य निहितार्थों से यह बात जबर्दस्त ढंग से पता चलती है कि चीन जनवादी गणतंत्र (पीआरसी) द्वारा 1950 के दशक से ही नस्लीय राष्ट्रीयता से निपटने के लिए जिस अल्पसंख्यक नीति को अपनाया गया है वह विफल हो चुकी है। यह विफलता खासकर इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह साल 2010 में तिब्बत पर तथाकथित संशोधित नीति निर्णय के बाद ही दिख रहा है जिसे तिब्बत में सौहार्दपूर्ण विकास का आहवान करने वाले तिब्बत कार्य रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है।

तिब्बत पर चीन के नीतिगत दिशा को वर्णित करने के लिए बीजिंग में 18 से 20 जनवरी, 2010 को ‘तिब्बत के लिए कार्य पर पांचवां राष्ट्रीय सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था। यह बात साफ थी कि इस सम्मेलन का आयोजन मार्च, 2008 में तिब्बती जनक्रांति के बाद किया गया है। पहली बात, इसमें ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर जोर दिया गया, दूसरे इसमें सामरिक बुनियादी ढांचे के विकास की जगह आर्थिक कल्याण और सामाजिक सुरक्षा ढांचा उपलब्ध कराने पर जोर दिया गया और तीसरे, इसमें सभी तिब्बती इलाकों को शामिल किया गया, चौथे कार्य रिपोर्ट से अलग जिसमें कि सिर्फ तिब्बती स्वायत्तशासी क्षेत्र (टीएआर) को ही शामिल किया गया था।

यह बात साफ है कि साल 2010 का तिब्बत कार्य सम्मेलन विशेष रूप से दलार्इ लामा के बाद की स्थितियों पर विचार के लिए बुलाया गया है। इसलिए राष्ट्रपति हू जिनताओ ने कहा कि ‘तिब्बत में सभी नस्लीय समूहों के लोगों और दलार्इ गुट के नेतृत्व वाले अलगवादियों के बीच विशेष प्रतिवाद चल रहा है।” उन्होंने तिब्बत कार्य सम्मेलन के प्राथमिक पहलुओं के रूप में ‘भारी विकास’ और ‘स्थिरता कायम रखने’ का आहवान किया। इस सम्मेलन का एक और महत्वपूर्ण यह था कि हू ने ‘तिब्बती बौद्ध धर्म के सामान्य दर्जे की स्थापना सुनिशिचत करने पर जोर दिया।’ हालांकि, उन्होंने यह साफ नहीं किया कि सामान्य दर्जे का मतलब क्या है, लेकिन तिब्बत के प्रति चीन की नीतियों से यह संकेत मिलता है कि चीन की घोषित नीति दलार्इ लामा को अलग-थलग करने और बौद्ध धर्म की व्याख्या चीनी विशेषताओं के मुताबिक करने की है जो कि साल 2007 की पुनर्जन्म कानून, दक्षिण-पूर्व चीन में पहली बार बौद्ध एकेडमी की स्थापना करना और साल 2006 में होंगजू में विश्व बौद्ध मंच के आयोजन से साफ होता है।

लेकिन साल 2010 के सम्मेलन के बाद तिब्बत में आत्मदाह की 11 घटनाएं यह इंगित करती हैं कि चीन सरकार की कार्य रिपोर्ट बुनियादी तौर पर खोखली है। इसकी विफलता की व्यापक वजह अल्पसंख्यक नीति को माना जा सकता है जोकि क्षेत्रीय स्वायत्तता व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक है। वैसे तो चीन (पीआरसी) की नीतियां सोवियत संघ के नस्लीय नीति से प्रेरित रही हैं, लेकिन पीआरसी में जो क्षेत्रीय स्वायत्तता व्यवस्था कायम की गर्इ है वह रूसी संघीय राज्य ढांचे से बिल्कुल अलग है। इसकी वजह यह है कि चीन को एक असमान समझौता व्यवस्था का इतिहास से कड़वा अनुभव मिला है जिसने सन यात सेन के मुताबिक चीन को एक ‘हाइपो कालोनी’ में बदल दिया है।

चीन को विघटन से बचाने और संप्रभुता कायम रखने के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) ने 1949 के बाद रूसी व्यवस्था से मिले आत्म निर्धारण के अधिकार का परित्याग कर दिया और सन यात सेन के ‘पांच नस्लों की एकता’ की भावना को अपनाया। इसके अलावा चीन की 8.4 फीसदी अल्पसंख्यक जनता के पास मुख्य भूमि का करीब 63.7 फीसदी हिस्सा है और इसमें सीमा का भी बड़ा हिस्सा है जिसकी वजह से चीन की नाजुकता बढ़ जाती है। इसलिए चीन की अल्पसंख्यक नीति में तिब्बत के ऊपर प्रभुसत्ता को बुनियादी बात माना जाता है और यह चीनी राष्ट्रवाद का भी मूल बिंदु है।

तिब्बत के ऊपर चीन की प्रभुसत्ता को रेखांकित करने के लिए साल 2003 में हू ने ‘तीन जोर’ का विवरण पेश किया: समाजवाद एवं कम्युनिस्ट पार्टी नेतृत्व का समर्थन और नस्लीय अल्पसंख्यकों को क्षेत्रीय स्वायत्तता।

जुलार्इ, 2008 में तिब्बती कार्यदल समूह से बात करते हुए चीन ने फिर से अपने ‘तीन जोर’ वाले सिद्धांत को दोहराया। इसके बाद जनवरी 2009 में तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता पर जोर देते हुए तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (टीएआर) की विधायिका ने एक प्रस्ताव पारित कर 28 मार्च को दासत्व मुक्ति दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन अब तिब्बत की स्थिति को निपटा हुआ मानता है, इसलिए तिब्बती कार्यदल से बात वह तिब्बत के सवाल पर नहीं बल्कि ‘दलार्इ लामा और उनके आसपास रहने वाले लोगों के भविष्य’ पर करता है।

वास्तव में विकीलीक्स के खुलासे से यह पता चलता है कि चीनी नेतृत्व के लिए ताइवान से ज्यादा संवदेनशील तिब्बत है। तिब्बत के मसले पर चीनी नेतृत्व में वास्तव में ‘किसी तरह का विभाजन’ नहीं है इसलिए तिब्बत के प्रति कठोर रवैया अपनाने में सर्वसम्मति है।

इस प्रकार क्षेत्रीय स्वायत्तता व्यवस्था अनिवार्य रूप से इस तरह से गढ़ी गर्इ है जिससे तिब्बत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण बढ़े। राजनीतिक रूप से टीएआर के पहले सचिव हमेशा हान नस्ल के होते हैं। तिब्बतियों के पास असल में कोर्इ ताकत नहीं होती। आर्थिक लिहाज से देखें तो साल 2000 में शुरू की गर्इ पशिचम विकास परियोजना मूलत: एक सुरक्षा प्रेरित रणनीति थी जिसमें पांच तत्वों: हान करण, संशाधनों का दोहन, बुनियादी ढांचे का निर्माण, सैन्य विकास और दमन को शामिल किया गया था। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चीन के लिए तिब्बत कोर्इ पहचान का मसला नहीं बलिक प्रभुसत्ता का मसला है। साल 2010 की कार्य रिपोर्ट तिब्बतियों की पहचान के मुख्य समस्या का समाधान नहीं करती और इसलिए चीन में अशांति तथा आत्मदाह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। वास्तव में तिब्बत में चीन की नीतियों के विफल होने से यह भी पता चलता है कि पहचान के सवाल को धन की बाढ़ से हल नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो तिब्बत में लगातार जारी अशांति चीन में अलगावाद को कम करने के लिए आर्थिक समृद्धि बढ़ाने की देंग जियोपिंग की रणनीति की सफलता पर सवाल उठाती है।

आत्मदाह की घटनाओं की बात करें तो यह साफ है कि इसकी शुरुआत टीएआर के बाहर हुर्इ है। शायद टीएआर में ज्यादा दमनकारी और कठोर नीतियों की वजह से ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगा हो। एक वजह यह भी हो सकती है कि दलार्इ लामा का जन्म आमदो (अब किवंघर्इ प्रांत का हिस्सा) में हुआ था, न कि टीएआर में जिसकी वजह से इस इलाके में आत्मदाह के लिए ज्यादा लोग प्रेरित हो रहे हैं।

इसके अलावा ज्यादा प्रेक्षकों के विपरीत मैं यह कहना चाहूंगी कि आत्मदाह की घटनाओं से यह नहीं साबित होता कि तिब्बती लोगों में हताशा बढ़ रही है। असल में यह चीन सरकार द्वारा अपनाए गए दमन के नए तरीकों से निपटने के लिए नए तरह के विरोध प्रदर्शन जैसे ही हैं। इसका दुनिया भर के लोगों पर बहुत ही भावुक और प्रदर्शनकारी प्रभाव पड़ रहा है। इसमें कम आश्चर्य होना चाहिए कि अब यह नेपाल और भारत में रहने वाले तिब्बती समुदाय तक भी फैल चुका है।

इस प्रकार, यह व्यापक रूप से प्रदर्शित होता है कि सिचुआन प्रांत में तिब्बतियों के आत्मदाह के 11 मामलों से चीनी राष्ट्रवाद की सीमाएं उजागर हो जाती हैं जिसमें मूलत: उप राष्ट्रीय पहचान को एक महान हान राष्ट्रीयता में विलीन कर देने की बात की जाती है।

यह बात साफ है कि जब तक चीन तिब्बती राष्ट्रीयता को एक पहचान के सवाल की जगह सामरिक मसला मानता रहेगा, तिब्बत की समस्या अनसुलझी ही रहेगी। दलार्इ लामा के बाद के युग में उनके न रहने पर हो सकता है कि यह आंदोलन अपनी ताकत खो दे और चीन अपनी दमनकारी मशीनरी के बल पर तिब्बती आंदोलन पर अंकुश लगा दे, लेकिन चीन की विदेश एवं घरेलू नीति में तिब्बती पहचान हमेशा एक ज्वलंत मसला बना रहेगा।

(लेखिका, दिल्ली विश्वविधालय के पूर्वी एशिया विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)


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