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तिब्बत की आज़ादी का आहवान

October 22, 2012

22 अक्टूबर, 2012, तिब्बत डाट नेट, धर्मशाला

नर्इ दिल्ली। चीन-भारत के बीच 1962 के युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर कोर ग्रुप फार तिब्बतन काज, भारत ने नर्इ दिल्ली के राजेंद्र भवन में “भारत पर चीनी हमले के 50 वर्ष और तिब्बत का सवाल” विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया।

कोर ग्रुप के संयोजक डा. एन. के. त्रिखा ने विभिन्न पृष्ठभूमि से आए सभी प्रमुख वक्ताओं का स्वागत करते हुए संगोष्ठी (सेमिनार) के सत्र की शुरुआत की। उन्होंने कहा, “1962 के चीनी हमले ने चीन के उद्देश्य पर कर्इ सवाल खड़े किए हैं। हिंदी-चीनी भार्इ भार्इ और पंचशील समझौते जैसे शब्द जाल वाले नारों के बावजूद चीन ने समझौते की शर्तों को न मानते हुए भारत को धोखा दिया था। डा. त्रिखा ने कहा, ‘चीन का दावा था कि भारत द्वारा सीमा पर आगे बढ़ने और वहां विकास करने से चीन युद्ध के लिए मजबूर हुआ था।’ उन्होंने कहा कि चीन-भारत की वजह तिब्बत नहीं था, बल्कि इसकी वजह भारत के प्रति चीन का रवैया था, जो भारत को सबक सिखाना चाहता था।

सेना के पूर्व उप प्रमुख जनरल एन.एस. मलिक (रिटायर्ड) ने यह स्वीकार किया कि चीन-भारत के बीच वार्ता में तिब्बत मसला काफी हद तक जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा, “हमारे उत्तरी सीमा पर जो भी और कुछ भी होता है तो उसका तिब्बत से जुड़ाव जरूर रहता है। जिस दिन से चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, उसी दिन से हमारे लिए सीमा के मसले शुरू हो गए। दुर्भाग्य से हमने इसे महत्व नहीं दिया।” उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी समस्या हमारे देश में राजनीतिक इच्छाशकित की कमी है। चीन-भारत युद्ध की बात करते समय हमारे राजनीतिक नेता एक ऐसी उदास तस्वीर पेश करते हैं जिसमें लोगों ने हार को स्वीकार कर लिया था। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि भारत के इलाकों पर कब्जा बनाए रखने में आ रही परिवहन संबंधी दिक्कतों की वजह से ही 20 नवंबर, 1962 को चीन ने एकतरफा तौर से युद्ध विराम की घोषणा कर दी। जनरल ने यह सवाल भी किया कि क्या 1962 का युद्ध असल में एक युद्ध था या सीमा का टकराव। उन्होंने कहा कि मौजूदा परिस्थितियों में अब चीन 1962 के जैसे हमारी सीमाओं के भीतर नहीं आ सकता।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए राजनयिक रंजीत गुप्ता ने 1962 के ऐतिहासिक पहलू और तिब्बत पर भारतीय नेताओं के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “तिब्बत असल में नेहरू की चीन के साथ संबंध बनाने की आकांक्षा का शिकार हुआ।” वरिष्ठ नेताओं की कर्इ विचारपूर्ण सलाह के बाद भी नेहरू ने तिब्बत पर गलत नीति अपनार्इ।

रंजीत गुप्ता ने दावा किया कि “भारत की चीन में अमेरिका से भी ज्यादा दिलचस्पी थी।” उन्होंने कहा कि चीन को इस बात की छूट नहीं दी जानी चाहिए कि वह हमारी विदेशी नीति को तय करे। 1962 का युद्ध हमारे लिए एक सबक है जिसे याद रखना चाहिए। चीन के प्रति अपनी नीति में भारत को बिना उकसावे के दृढ़ रहना सीखना होगा। उन्होंने कहा कि चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा कर लिया तो उसके बाद परमपावन दलार्इ लामा और हजारों तिब्बतियों को भारत में शरण देने का निर्णय सही और उचित था। इसलिए अब राजनीतिक दलों को आम सहमति से तिब्बतियों को अपने देश को आज़ाद कराने के लिए पूर्ण सहयोग देना चाहिए।

मेजर जनरल विनोद सहगल (रिटायर्ड) ने कहा कि माओ त्से तुंग की योजना भारत को सबक सिखाने की थी ताकि तिब्बत मसला चर्चा में न आ पाए। उन्होंने कहा, “हम अब सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर की बात करते हैं, लेकिन हम तिब्बत की बात नहीं करते हैं। उन्होंने भरोसे के साथ कहा कि अब 1962 जैसा युद्ध नहीं हो सकता क्योंकि भारत अब चीन के बारे में बेहतर जानकारी रखता है। तिब्बत मसले पर उन्होंने कहा कि यदि सीमा संबंधी मसले सुलझा लिए गए तो तिब्बत मसला अपने आप हल हो जाएगा।

राज्य सभा सांसद बलबीर पुंज ने मशहूर उर्दू शेर ‘लमहों ने खता की थी, सदियों ने सजा पार्इ’ से अपनी बात की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि यदि 1950 के दशक में दूरदर्शिता अपनार्इ गर्इ होती तो तिब्बत पर कब्जा और सीमा पर अन्य स्थायी समस्याएं नहीं होतीं। उन्होंने मध्यवर्ती राजशाही की अवधारणा और कंफ्यूशियस की विचारधारा का हवाला देते हुए साफ तौर पर दिख रहे अहंकारी प्रवृतित वाले चीनी सोच का विस्तार से विवरण दिया। उन्होंने साफतौर से उल्लेख किया कि तिब्बत एक बफर देश था और उसके भारत एवं चीन से बराबरी के संबंध थे। उन्होंने कहा कि पिछले 50 वर्षों में हम आगे नहीं बढ़ पाए हैं और दलार्इ लामा की मदद नहीं कर पाए हैं, लेकिन एक दिन तिब्बत आज़ाद होगा और चीन को उसकी सही जगह दिखा दी जाएगी।

तिब्बत नीति संस्थान के निदेशक श्री थुबतेन सामफेल ने तिब्बत पर चीनी हमले की संक्षिप्त रूपरेखा पेश की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि 1904 में यंग हसबैंड के तिब्बत में अभियान के बाद चीन तिब्बत पर कब्जे के लिए तत्पर हुआ। ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवादी विस्तारवाद को देखते हुए चीन को यह आशंका थी कि तिब्बत पर ब्रिटेन कब्जा कर सकता है, जो कि चीन के पिछवाड़े की तरह था, इसलिए चीन ने तिब्बत पर नए सिरे से ध्यान देना शुरू किया।

श्री सामफेल ने बताया कि दूसरी महत्वपूर्ण बात है दो अलग-अलग समझौते (1913 का शिमला समझौता और 1951 का 17 बिंदुओं वाला समझौता) और चीन द्वारा इन समझौतों को किस तरह से देखा गया। उन्होने एक नया तर्क देते हुए कहा कि विद्वानों को यह देखना चाहिए कि तिब्बत के साथ हुए समझौतों को मान्यता देने के मामले में चीन ने किस तरह से अपनी सुविधा के मुताबिक अपने पक्ष में बदलाव किया है।

श्री सामफेल ने कहा कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में बौद्ध परंपराओं के गुणों वाली विरासत के साथ मौजूद सांस्कृतिक तिब्बत ने भारत को भी काफी कुछ दिया है। इसलिए भारत सरकार को तिब्बत मसले को हल करने के लिए बहुत कुछ करना चाहिए, जबकि निर्वासित तिब्बती प्रशासन दीर्घ काल से बनी हुर्इ समस्याओं को हल करने के लिए मध्यम मार्ग नीति पर चलने की गारंटी दे रहा है।

इस अवसर पर डा. आनंद कुमार ने खेद जताया कि पिछले कर्इ वर्षों से भारतीय संसद में तिब्बत को लेकर कोर्इ भी गंभीर चर्चा नहीं हुर्इ है, जबकि भारतीय जनता में तिब्बत आंदोलन को लेकर सहानुभूति है और जनता 1962 के चीन-भारत युद्ध के बारे में अच्छी तरह से जानती है। उन्होने कहा, ‘हिमालय को बचाने के लिए तिब्बत को चीनी हमलावरों से बचाना होगा।’ उन्होंने सुझाव दिया कि इसके लिए हमें भारतीय संसद को यह संदेश देना चाहिए कि वह तिब्बतियों की आज़ादी के संघर्ष में ज्यादा दृढ़ मदद करे।

अंत में तिब्बत के प्रसिद्ध मित्र श्री विजय क्रांति ने बताया कि कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश के समूचे हिमालयी क्षेत्र में तिब्बत हमारा पड़ोसी था। उन्होंने इस बात को खारिज किया कि चीन, भारत का पड़ोसी है। उन्होंने कहा कि भारत के बारे में चीन ‘मोतियों की लड़ी’ वाले रणनीति का पालन कर रहा है। तिब्बत में रेलमार्गों और सड़कों के विकास के बाद अब चीनी सेना भारत में कहीं भी आसानी से पहुंच सकती हैं। इस तरह के बुनियादी ढांचा विकास से मुख्यभूमि चीन के लोगों को तिब्बत में बसने में मदद मिली है जिससे तिब्बत के भीतर तिब्बती नागरिक एक महत्वहीन अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं।

उन्होंने साफतौर पर कहा कि तिब्बत की आज़ादी तिब्बतियों के मुकाबले भारतीयों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, खासकर यह देखते हुए कि तिब्बत के भीतर चीन के सैन्यीकरण से हम पर कितना खतरा हो सकता है।

इस संगोष्ठी में दिल्ली के सौ से ज्यादा भारतीय और तिब्बती नागरिक शामिल हुए। इस सेमिनार का आयोजन भारत तिब्बत मैत्री संघ, भारत तिब्बत सहयोग मंच, हिमालय कमेटी फार एक्शन आन तिब्बत, हिमालय परिवार, फ्रेन्डस आफ तिब्बत-भारत, स्टुडेंटस फार फ्री तिब्बत-भारत, यूथ लिब्रेशन फ्रन्ट आफ तिब्बत, राष्ट्रीय मुसिलम मांच द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था।


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