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तिब्बत पर भारत की नीति साफ है : शोधकर्ता

April 29, 2019

द हिन्दू‍, 21 अप्रैल, 2019

एक वरिष्ठ शोधकर्ता ने कहा कि दलाई लामा के पुनर्जन्म को लेकर चीन और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी में भारत के वाशिंगटन के साथ होने की संभावना नहीं है। इस महीने की शुरुआत में एक मीडिया कार्यक्रम के दौरान ‘द हिंदू’ द्वारा हाल के इस विवाद में चीन की भारत से अपेक्षा के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में चीनी-तिब्बती अनुसंधान केंद्र के शोधार्थी वांग ज़ियाओबिंग ने कहा कि वह नई दिल्ली की सकारात्मक प्रतिक्रिया के बारे में आश्वस्त हैं।

श्री वांग ने कहा कि ‘चीन के राष्ट्रीय हितों से जुड़े प्रमुख मुद्दों के संबंध में भारत सरकार की बहुत स्पष्ट नीति है। भारत यह मानता है कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। इसलिए चीन के ऐसे केंद्रीय मूल मुद्दों पर भारत की स्थिति बहुत स्पष्ट है।‘

चीनी विद्वान ने बताया कि चीन और भारत ने पचास के दशक में तिब्बत को लेकर कानूनी दस्तावेजों की एक शृंखला बनाकर अपनी स्थिति को संहिताबद्ध किया था और ये दस्तावेज इस मुद्दे पर बाद के विवादों को सुलझाने में मील के पत्थर बने हुए हैं।

उन्होंने तिब्बत और भारत के बीच सीमा पर व्यापार और परिवहन को लेकर 1954 की संधि का उल्लेख किया। इस संधि में, जिसे पंचशील या शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, भारत ने चीन के हिस्से के रूप में तिब्बत को औपचारिक मान्यता प्रदान  दी थी। श्री वांग ने कहा कि, ‘यह दर्शाता है कि ये एशियाई राष्ट्र- चीन और भारत ने वास्तव में दोस्ताना बातचीत और आपसी विश्वास और आपसी सम्मान के लिए इतिहास की बहुत अच्छी शिक्षा और विरासत को लिया हैं।‘

चीनी विद्वान ने कहा कि चीन ने नेहरू पर अपना रुख बदल लिया था। क्यों कि नेहरू के 1949 में अमेरिका की यात्रा के बाद चीन को संदेह हो गया था कि नेहरू ‘अमेरिकी साम्राज्यवादियों की ओर मुड़’ सकते हैं।

उन्होंने कहा कि, ‘जब पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई (1949 में) और जब प्रधानमंत्री नेहरू ने अमेरिका का दौरा किया तो इससे चीन में बहुत संदेह पैदा हुआ। और वे (चीनी) मानने लगे थे कि श्री नेहरू वास्तव में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की ओर रुख कर रहे थे। लेकिन यह गलत निकला- उन्होंने ऐसा नहीं किया।‘

ऑल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन (एसीजेए) द्वारा आयोजित विदेशी मीडिया के साथ बातचीत के दौरान पत्रकारों ने परम पावन दलाई लामा द्वारा रायटर को दिए साक्षात्कार के संबंध में वांग पर सवालों की झड़ी लगा दी। रायटर के साथ साक्षात्कार में तिब्बती भिक्षु ने कहा था कि उनका उत्तराधिकारी भारत में पैदा हो सकता है। यह एक ऐसा बयान है जो चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष पैदा करेगा। पिछले महीने इस साक्षात्कार में दलाई लामा ने कहा था, ‘भविष्य में यदि आप दो दलाई लामाओं को देखते हैं, तो बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से एक तो एक यहाँ एक मुक्त देश में होंगे जबकि दूसरे दलाई लामा चीन सरकार द्वारा थोपे हुए होंगे। लेकिन इतना तय है कि चीन द्वारा थोपे हुए दलाई लामा पर कोई भरोसा नहीं करेगा, कोई भी उनका सम्मान नहीं करेगा। संभव है कि‍ यह चीन के लिए एक अतिरिक्त समस्या होगी।

विश्लेषकों का कहना है कि अगर दलाई लामा अपनी बात पर अड़े रहे तो यह बीजिंग समर्थित उनके उत्तराधिकारी की वैधता से समझौता करके ‘एक चीन’ नीति को कमजोर कर सकता है। ‘वन-चाइना’ नीति के तहत बीजिंग तिब्बत, ताइवान और झिंझियांग को चीन का अभिन्न अंग मानता हैं।

अपनी प्रतिक्रिया में चीनी विदेश मंत्रालय ने दलाई लामा के बयान को खारिज कर दिया। उसने कहा कि, ‘दलाई लामा के अवतार की परंपरा सैकड़ों वर्ष पुरानी है। 14वें दलाई लामा को भी उन्हीं धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा मान्यता दी गई थी और उन्हें। फि‍र केंद्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित किया गया था।‘

19 मार्च को मीडिया से बातचीत के दौरान चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा, ‘इसलिए दलाई लामा के अवतार को घोषित करने में राष्ट्रीय कानूनों और नियमों और धार्मिक अनुष्ठानों का पालन किया जाना चाहिए।‘2007 में चीन के धार्मिक मामलों के राज्य प्रशासन ने घोषित किया था कि चीन के अंदर पैदा हुए सभी बौद्ध लामाओं के पुनर्जन्मों को वैध मानने के लिए सरकार की मंजूरी लेनी होगी।

संयुक्त राज्य अमेरिका में अमेरिकी सरकार वहां की कांग्रेस में उत्तराधिकार के मुद्दे पर पूरी ताकत के साथ दलाई लामा का समर्थन कर रही हैं। यह बीजिंग और वाशिंगटन के बीच संबंधों में तनाव को और बढ़ानेवाला साबित हो सकता है, जो दोनों देशों के बीच ‘व्यापार युद्ध’ के कारण पहले से ही बिगड़ा हुआ है। साथ ही ताईवान मुद्दे पर भी मतभेद बढ़ रहे हैं। पूर्वी एशिया, प्रशांत और अंतर्राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति पर अमेरिकी कांग्रेस की उपसमिति के अध्यक्ष सीनेटर कोरी गार्डनर ने 9 अप्रैल को एक सुनवाई के दौरान कहा, ‘मुझे इस मामले को बहुत साफ शब्दों में कहने दें कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस (संसद) चीन द्वारा थोपे गए दलाई लामा को कभी स्वीकार नहीं करेगी।‘


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