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तिब्बत में उम्मीद

May 7, 2011

विजय क्रांति

लोकतांत्रिक चुनाव के माध्यम से नया तिब्बती प्रधानमंत्री और संसद चुनकर तथा अपने राजनीतिक अधिकार उन्हें सौंपने का क्रांतिकारी फैसला कर दलाई लामा ने चीन के कम्युनिस्ट शासकों की उन उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया है, जिन्हें सीने से लगाकर वे कई दशकों से वर्तमान दलाई लामा के अंत का इंतजार करते आ रहे थे।

निर्वासित तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री पद पर हार्वर्ड लॉ स्कूल से जुड़े 43 वर्षीय डॉ लोबसंग सांग्ये के चुनाव की घोषणा पर चीन की तिलमिलाहट स्वाभाविक है। इसका प्रदर्शन करते हुए बीजिंग में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग ली का कहना था कि जिस तथाकथित सरकार के वह प्रधानमंत्री चुने गए हैं, वह खुद ही एक गैरकानूनी राजनीतिक संस्था है, जिसे दलाई लामा ने तिब्बत को आजाद कराने और अलगाववादी गतिविधियां चलाने के लिए स्थापित किया है। इस निर्वासित सरकार का मजाक उड़ाते हुए चीनी प्रवक्ता ने यह भी कहा था कि उस सरकार को दुनिया की किसी सरकार ने मान्यता नहीं दी है।

एक तरफ दलाई लामा के नेतृत्व में चलने वाली निर्वासित सरकार के लिए तथाकथित सरकार जैसे शब्द इस्तेमाल करके और मान्यता न होने की दुहाई देकर उसे अर्थहीन दिखाने की कोशिश करना और दूसरी ओर उसी सांस में तिब्बत की आजादी और चीन को तोड़ने जैसे मुद्दे उठाकर चीन ने एक बार फिर जताया है कि वह दलाई लामा से कितना भयभीत है। लेकिन इस बार इस भय और तिलमिलाहट के पीछे एक ऐसा कारण है, जिसने तिब्बत पर 1951 से कब्जा जमाए बैठे कम्युनिस्ट चीनी शासकों की नींद हराम कर दी है और उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया है ।

ऐसा नहीं है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार में पहली बार चुनाव हुआ है या पहली बार कोई कालोन ट्रीपा (प्रधानमंत्री) नियुक्त हुआ है। असल में 1959 में निर्वासन में आने के बाद दलाई लामा कई बार अपनी सरकार का प्रधानमंत्री नियुक्त कर चुके हैं और 15 बार तिब्बती शरणार्थी अपने सांसद चुन चुके हैं। बल्कि 2001 के बाद यह तीसरा मौका है, जब दुनिया भर में बसे तिब्बती शरणार्थियों ने सीधे मतदान से अपने प्रधानमंत्री का चुनाव किया है। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री बने डॉ. लोबसंग तिब्बत के इतिहास में पहले ऐसे कालोन ट्रीपा होंगे, जिनके नेतृत्व में चलने वाली सरकार और संसद को दलाई लामा अपनी सारी वैधानिक और राजनीतिक शक्तियां सौंपने जा रहे हैं।

वर्ष 1642 से 1951 तक तिब्बत में लागू गंदेन फोड्रांग शासन प्रणाली में दलाई लामा तिब्बतियों के सर्वोच्च धर्मगुरु होने के साथ-साथ वहां के राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष भी होते रहे हैं। हर नए दलाई लामा का चुनाव पुर्नजन्म के आधार पर किया जाता है। यानी एक दलाई लामा की मृत्यु के तीन-चार साल बाद उनके नए अवतार बच्चे को गद्दी पर बिठाया जाता है और उसके वयस्क होने पर शासन सौंपा जाता है। वतर्मान 75 वर्षीय दलाई लामा (तेनजिन ग्यात्सो) इस परंपरा में चौदहवें हैं।

अपने आधुनिक और लोकतांत्रिक क्रांतिकारी विचारों के लिए शुरू से ही चर्चित रहे वर्तमान दलाई लामा ने दरअसल विगत 10 मार्च को तिब्बत के जनक्रांति दिवस पर घोषणा की थी कि वह आनेवाले चुनाव में जीतने वाले प्रधानमंत्री और संसद को अपने सारे राजनीतिक व शासकीय अधिकार सौंप देंगे और केवल धार्मिक पदवी अपने पास रखेंगे। इसके साथ-साथ उन्होंने यह इच्छा भी व्यक्त की कि भविष्य में नए दलाई लामा की नियुक्ति पुर्नजन्म और अवतार के आधार पर नहीं, बल्कि अनुभव और योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। यानी अपनी मृत्यु से पहले ही वह सुनिश्चित कर जाएंगे कि उनके स्थान पर कोई विद्वान और योग्य तिब्बती शरणार्थी 15वें दलाई लामा नियुक्त हों।

दलाई लामा के इन फैसलों ने बीजिंग की इस मंशा को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है कि वर्तमान दलाई लामा के निधन के तुरंत बाद वह अपनी मरजी के किसी बच्चे को नया दलाई लामा घोषित कर तिब्बत की समस्या को हमेशा के लिए हल कर लेगा। इससे पहले 1990 वाले दशक में चीनी शासक करमापा और पंचेन लामा के नए अवतारों की नियुक्ति करके अपने इस नाटक की फुल ड्रेस रिहर्सल कर चुके हैं। यह बात अलग है कि चीन के चुने गए करमापा छह साल बाद अचानक उसके चंगुल से भागकर भारत चले आए। जर्बदस्ती पंचेन लामा बनाए गए चीनी कठपुतली को आज तक तिब्बती जनता ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसे में अब अगर चीनी नेता किसी तिब्बती बच्चे को जर्बदस्ती एक पिट्ठू दलाई लामा घोषित कर भी लेते हैं, तो दलाई लामा की असली राजनीतिक, शासकीय और धार्मिक शक्तियों से वह बिलकुल वंचित होगा।

चीनी नेताओं को अब समझ में आ रहा है कि अगर वे तिब्बत पर अपना शिकंजा कसने के लिए दलाई लामा के नए अवतार का इस्तेमाल करने का मनसूबा पाले हुए थे, तो दलाई लामा भी पिछले पांच दशकों से एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था विकसित करने में लगे हुए थे, जो उनके बाद भी तिब्बत के मुक्ति आंदोलन को मंजिल तक ले जा सके। कानून और राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी 43 वर्षीय सांग्ये के चयन ने तिब्बत को एक ऐसा नेता दिया है, जो उसकी आजादी के उस यज्ञ को आगे बढ़ाएगा, जिसे दलाई लामा पिछले पचास वर्षों में इस मुकाम तक ले आए हैं। उम्मीद की जा रही है कि आगामी 15 अगस्त को शपथ लेनेवाले डॉ. लोबसांग तिब्बत के इतिहास का एक नया अध्याय शुरू करेंगे।


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