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दलाई लामा राष्ट्र के रूप में तिब्बत के अंतिम प्रतीक हैं

June 28, 2022

श्री न्गोंडुप डोंगचुंग।

theweek.in 

 दलाई लामा | रॉयटर्स

दुनिया जब ०६ जुलाई को परम पावन दलाई लामा का ८७वां जन्मदिन मना रही है, यह मेरे लिए खट्टा-मीठा का मिश्रित क्षण है। एक तरफ, मैं बहुत धन्य महसूस करता हूं कि मुझे दलाई लामा और तिब्बती प्रशासन के विभिन्न पदों पर ४५ वर्षों तक सेवा करने का अवसर मिला है, जिसमें कुछ अत्यंत चुनौतीपूर्ण समय भी शामिल हैं। दूसरी ओर, जैसा कि वे कहते हैं, सभी अच्छी चीजों का अंत होना निश्चित है। इसलिए अब समय आ गया है कि मैं तिब्बती नौकरशाहों की युवा पीढ़ी को मशाल सौंप दूं।

कहने की जरूरत नहीं है कि दलाई लामा आज एक विश्व-प्रसिद्ध आध्यात्मिक और नैतिक नेता हैं, जो भारत के सम्मानित अतिथि के रूप में ६३ वर्षों से अधिक समय से धर्मशाला में निवास कर रहे हैं। धर्मशाला कभी एक सुदूर और उजाड़ पहाड़ी शहर हुआ करता था।लेकिन अब यह अपने आप में एक विशाल शहर है, जहां दिल्ली से पांच, कभी-कभी छह सीधीदैनिक उड़ानें हैं। धर्मशाला आज एक तरह से दुनिया भर के बौद्धों के लिए आध्यात्मिक राजधानी और जीवन और आध्यात्मिकता में अर्थ तलाशने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र बन गया है।

तिब्बतियों के साथ-साथ हिमालयी बौद्ध पट्टी और इससे अलग रहने वाले लोगों के लिए दलाई लामा सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण अवलोकितेश्वर या चेनरेज़िग, करुणा के बोधिसत्व- तिब्बत के संरक्षक संत की तरह हैं। दलाई लामा १६४२ सेतिब्बत के आध्यात्मिक और इहलौकिक शासक रहे हैं। दलाई लामा तिब्‍बत राष्ट्र, इसमें बसने वाले लोगों और इसकी विशिष्ट ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के सर्वोच्‍च प्रतीक हैं।

हालांकि, परम पावन ने तिब्बत की धार्मिक शासन व्यवस्था को लोकतांत्रि‍क व्‍यवस्‍था में परिवर्तित  करने के माध्यम से आधुनिकीकरण करने का लगातार प्रयास किया है। आम तिब्बती बोलचाल में हमारे जीवंत लोकतंत्र को अक्सर परम पावन के उपहार’ के रूप में पहचाना जाता है। २०११ में दलाई लामा द्वारा राजनीतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों के पूर्ण हस्तांतरण के बाद तिब्बती प्रशासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था आज एक निर्वाचित नेतृत्व के हाथों में है, जिसमें अधिकारियों, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों में स्पष्ट नियंत्रण, विभाजन और संतुलन है।

मानवीय मूल्यों और अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने और वैश्विक पर्यावरण के संरक्षण के लिए अपनी सक्रिय भागीदारी के अलावा परम पावन को दुनिया भर में शांति और अहिंसा के अग्रदूत के रूप में सम्मानित किया गया है। परम पावन अक्सर कहते हैं कि २१वीं सदी संवाद की सदी होनी चाहिए और उन्होंने सच्चे, स्थायी मेल-मिलाप और सभी वैश्विक संघर्षों को हल करने के एकमात्र साधन के रूप में अहिंसा और संवाद की अथक वकालत की है। तिब्बत को मुक्त कराने के संघर्ष में हिंसा के उपयोग का लगातार विरोध करने और अपने लोगों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए सहिष्णुता और आपसी सम्मान के आधार पर शांतिपूर्ण समाधान की वकालत करने के लिए परम पावन को १९८९ में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

परम पावन के सबसे स्थायी वैश्विक योगदानों में से एक उनका प्राचीन भारतीय अहिंसा और करुणा के ज्ञान का पुनरुद्धार है। वे दिन गए, जब कुछ लोगों ने मिलावटी या विदेशी ‘लामावाद’ कहकर तिब्बती बौद्ध धर्म को ठुकरा दिया था। दुनिया भर के वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों के साथ उनके वर्षों के व्यापक विमर्श ने बौद्ध विज्ञान और दर्शन और बौद्ध धार्मिक साधना के बीच गहरी समझ विकसित की है और स्पष्ट सीमांकन किया है। प्राचीन भारतीय नालंदा परंपरा पर आधारित मन की जटिल कार्यप्रणाली से संबंधित बौद्ध विज्ञान और दर्शन पहले से ही विभिन्न विश्वविद्यालयों और स्कूलों में पढ़ाया और शोध किया जाने वाला धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक विषय बन गया है।

परम पावन अक्सर एक प्रार्थना को दोहराते हुए कहते हैं, ‘जब तक यह अंतरिक्ष है और जब तक प्राणियों का अस्तित्‍व हैं, तब तक मैं भी संसार के दुखों को दूर करने में मदद करने के लिए बना रहूँ।‘ मैं यहां एक प्रार्थना के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं-‘जिस तरह इस जीवन में मुझे दलाई लामा की सेवा करने का अवसर मिला है, मेरी कर्मों की निधि इतनी संचित और स्वस्थ हो कि मैं अगले जीवन में भी फि‍र से उनकी सेवा कर सकूं।‘

लेखक नई दिल्ली में दलाई लामा के प्रतिनिधि हैं।

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और इसका मतलब ‘द वीक’ के विचारों को प्रतिबिंबित करना नहीं है।


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