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परम पावन चौदहवें दलाई लामा द्वारा यरोपीय संसद के पूर्ण सत्र को संबोधन

December 4, 2008

महामहिम राष्ट्रपति महोदय, संसद के माननीय सदस्य गण, भाइयों एवं बहनों आज आपके सामने कुछ बोलना मेरे लिए परम सम्मान की बात है और आपने मुझे यहां बुलाया इसके लिए आपका धन्यवाद देना चाहता हूं। जहां भी मै जाता हूं मेरी प्रमुख रूचि या प्रतिबद्धता सहदयता जैसे मानवीय मूल्यों के बढ़ावा देने की होती है- जो कि मै समझता हूं कि व्यक्तिगत स्तर, पारिवारिक स्तर या सामुदायिक स्तर पर खुशहाल जीवन के लिए प्रमुख घटक है। आधुनिक समय में ऐसा लगता है कि इन आंतरिक मूल्यों की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसलिए इन्हें बढ़ावा देना मेरी पहली प्राथमिकता है।

मेरी दुसरी रूचि या प्रतिबद्धता अंतर-धार्मिक सामंजस्य को बढ़ावा देना है। हम सब राजनीति और लोकतंत्र में बहुलवाद की जरूरत को स्वीकर करते हैं, लेकिन विशवासों औऱ धर्मो की बहुलता के बारे में हम अक्सर ज्यादा हिचक दिखाते हैं। अपने धारणओं और दर्शनों के बावजूद दुनिया की सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं में प्रेम, करूणा, सहनशीलता, संतोष, और आत्मानुशासन का ही संदेश दिया गया है। इसी प्रकार मानव को खुशहाल जीवन जीने में मदद करने के मामले में इनमें समान क्षमता है। इसलिए इन दो बातों में मेरी मुख्य रूचि या प्रतिबद्धता है।

निशिचत रूप से तिब्बत का मसला भी मेरे लिए खास चिंता का विषय है और तिब्बत के लोगों के प्रति मेरी विशेष जिम्मेदारी है, जो तिब्बत के इतिहास के इस कठिन समय में मुझमें लगातार भरोसा और उम्मीद बनाए हुए हैं। तिब्बती लोगों का कल्याण मेरे लिए निरंतर प्रेरणा का स्रोत रहा है और मैं अपने को निर्वासन में उनका स्वतंत्र प्रवक्ता मानता हूं।

पिछली बार मुझे 24 अक्टूबर, 2001 को यूरोपीय संसद को संबोधित करने का सौभाग्य मिला था। तब मैंने घोषित किया था, कुछ विकास और आर्थिक तरक्की के बावजूद तिब्बत लगातार अपने अस्तित्व की बुनियादी समस्याओं का सामना कर रहा है। पूरे तिब्बत में मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया जा रहा है और अक्सर यह नस्लीय एवं सांस्कृतिक भेदभाव की नीतियों की वजह से होता है। वास्तव में ये तो केवल लक्षण मात्र हैं और इसका परिणाम बहुत गंभीर हो सकता है। चीनी प्रशासन तिब्बत की भिन्न संस्कृति एवं धर्म को अलगाव के खतरे के स्रोत के रूप में देखता है। इस प्रकार जानबूझकर ऐसी नीति अपनाई जा रही है जिससे विशिष्ट संस्कृति और पहचान वाले समूचे तिब्बती लोगों के विलुप्त होने का खतरा

सामने है।

इस साल मार्च से ही जनजीवन के हर क्षेत्र से जुड़े और समूचे तिब्बती पठार के तिब्बती तिब्बत में चीनी प्रशासन की भेदभावपूर्ण और दमनकारी नीतियों का विरोध कर रहे हैं। अपने जीवन के प्रति बड़े खतरे के प्रति पूर्ण सचेत चोल्का-सुम (यू-त्सांग, खाम और आमडो) कहलाने वाले समूचे तिब्बत के तिब्बती युवा एवं वृद्ध, महिलाएं एवं पुरूष, मठों से जुड़े लोग एवं आम जनता, धर्म में विशवास करने वाले या न करने वाले, विद्यार्थी आदि सहज रूप से एक साथ आए है और उन्होंने चीन सरकार की नीतियों के खिलाफ अपने गुस्से, असंतोष और वाजिब शिकायतों को साहस के साथ प्रकट किया है। तिब्बती और चीनी दोनों पक्षों की तरफ लोगों की जानें जाने से मुझे गहरा दुःख हुआ और मैंने तत्काल चीनी प्रशासन से अनुरोध किया कि वे संयम बरतें।

चीनी प्रशासन ने मेरे उपर आरोप लगाया है कि हाल में तिब्बत में हुई घटनाओं का सूत्रधार मैं हूं, इसलिए मैंने लगातार यह अपील की कि एक स्वतंत्र और सम्मानित अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा इस मामले की गहन जांच की जाए और इस तरह की संस्था को मैं धर्मशाला आने का भी आमंत्रण देता हूं। इस तरह के गंभीर आरोपों के समर्थन में यदि चीन सरकार के पास कोई प्रमाण हैं तो उन्हें इसे दुनिया के सामने पेश करना चाहिए।

दुःख की बात यह है कि दुनिया के कई नेताओं, एनजीओं और अंतरराष्ट्रीय स्तर के व्यक्तित्वों द्वारा हिंसा को टालने और संयम बरतने की अपील के बावजूद चीनी प्रशासन ने तिब्बत की स्थिति से निपटने के लिए क्रूर तरीकों का सहारा लिया है। इस प्रक्रिया में बड़ी संख्या में तिब्बती लोग मारे गए हैं, हजारों घायल हुए हैं और नजरबंद कर दिए गए हैं। कई लोग के बारे में तो कुछ नहीं पता चल पा रहा कि वे कहां है। आज मैं जब आपके सामने खड़ा हुं, तब भी तिब्बत के कई हिस्सों में भारी संख्या में सशस्त्र बल और सेना के जवान मौजूद हैं। तिब्बत के कई क्षेत्रों में पूरी तरह सैनिक शासन जैसी स्थिति है। वहां गुस्से और भय का माहौल है। तिब्बत में रहने वाला हर तिब्बती लगातार इस डर के वातावरण में जी रहा है कि न जाने कब उसे गिरफ्तार कर लिया जाए। तिब्बत के किसी भी हिस्से में किसी अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक, पत्रकार या पर्यटक को जाने की इजाजत नहीं है जिससे मैं तिब्बती लोगों के हालत को लेकर बहुत चिंतित हूं।

फिलहाल, चीनी प्रशासन तिब्बत में कुछ भी करने के लिए पूरी तरह से आजाद है। हालत यह हो गई है कि कई तिब्बती नागरिकों को मौत के सजा सुनाई गई है, जो तिब्बती लोगों के जीवट को तोड़ने का प्रयास है।

यूरोपीय संसद के कई माननीय सदस्य इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि संवाद और समझौते के द्वारा तिब्बती समस्या का एक परस्पर स्वीकार्य हल निकालने के लिए मैं किस तरह लगातार प्रयास कर रहा हूं। इसी प्रयास के तहत 1988 में स्ट्रोसबार्ग के यूरोपीय संसद में मैने वार्ता का एक औपचारिक प्रस्ताव पेश किया था जिसमें तिब्बत को अलग करने या आजाद करने जैसी मांग नहीं थी। इसके बाद से चीन सरकार के साथ हमारे संबंधो में कई उतार-चढ़ाव आए।

करीब 10 साल के व्यवधान के बाद 2002 में हमने चीनी नेतृत्व के साथ फिर से सीधा संपर्क कायम किया। मेरे दूतों और चीनी नेतृत्व के बीच गहन चर्चाएं हुई। इन चर्चाओं में हमने तिब्बती जनता की आकांक्षा को स्पष्ट तौर पर रखा। मेरे मध्यम मार्ग नीति का सार यही है कि चीन जनवादी गणतंत्र के संविधान के भीतर ही तिब्बती जनता को वास्तविक स्वायत्तता दी जाए। इस साल 1 और 2 जुलाई को बीजिंग में हुई सातवें दौर की वार्ता में चीन सरकार ने वास्तविक स्वायत्तता के स्वरूप के बारे में हमें अपना विचार रखने के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद 31 अक्टूबर, 2008 को तिब्बती जनता के लिए वास्तविक स्वायत्तता पर हमने चीनी नेतृत्व को एक झापन दिया। हमारे झापन में यह बताया गया था कि वास्तविक स्वायत्तता के बारे में हमारी क्या राय है और तिब्बती राष्ट्रवाद की स्वायत्तता औऱ स्वशासन की बुनियादी जरूरतों को कैसे पूरा किया जा सकता है।

इन सब सुझावों के पीछे हमारा एकमात्र उद्देशय यह था कि तिब्बत की वास्तविक समस्याओं का समाधान हो सके। हमें पूरा विशवास है कि हमने झापन के माध्यम से जो रास्ते बताए है, चीन सरकार सदभाव दिखाते हुए उनको लागू करेगी। लेकिन दुर्भाग्य से चीन ने हमारे झापन को पूरी तरह से खारिज कर दिया और हमारे सुझावों के बारे में कहा कि वे अर्द्ध स्वतंत्रता और छदम रूप में स्वतंत्रता हासिल करने प्रयास हैं जिसकी वजह से उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा चीनी पक्ष ने हम पर जातीय सफाया जैसे आरोप लगाए क्योंकि हमारे झापन में स्वायत्त क्षेत्र के इस अधिकर को मान्यता देने की मांग थी कि, चीन जनवादी गणतंत्र के दूसरे हिस्से से तिब्बती क्षेत्रों में आने के इच्छुक लोगों के आवास, बस्ती रोजगर और अन्य आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित किया जा सके।

हमने अपने झापन में साफ तौर पर कहा था कि हमारा उद्देशय गैर तिब्बतियों को बाहर निकालना नहीं है। हमारी चिंता यह थी कि तिब्बत के कई हिस्सों में हान और कई अन्य राष्ट्रीयताओं के लोगों के बड़े पैंमाने पर बसने से मूल तिब्बती जनसंख्या हाशिए पर रजा रही हे औऱ इससे तिब्बत का नाजुक प्राकृतिक वातावरण पर भी खतरे में पड़ रहा है।

बड़े पैमाने पर लोगों को बसाने से हुए व्यापक जनसंख्यिकीय बदलावों से तिब्बती राष्ट्रीयता के चीन में एकीकरण की जगह विलय को ही बढ़ावा मिलेगा और इससे धीरे-धीरे तिब्बती लोगों की विशिष्ट संस्कृति और पहचान नष्ट होती जाएगी।

मंचूरिया, आंतरिक मंगोलिया और चीन में पूर्वी तुर्किस्तान के लोगों का मामला इस बात का साफ प्रमाण है कि अल्पसंख्यक नागरिकता के उपर प्रभावी हान नागरिकता के भारी जनसंख्या हस्तांतरण का विनाशकारी परिणाम क्या हो सकता है। आज मंचू लोगों की भाषा, लिपि और संस्कृति का पूरी तरह से लोप हो चुका है। आज आंतरिक मंगोलिया की कुल 2.4 करोड़ जनसंख्या में से मूल मंगोलियाई जनसंख्या का हिस्सा सिर्फ 20 फीसदी है।

चीन के कठोर रवैए वाले अधिकारियों के दावों के विपरीत, झापन की जो प्रति आपको उपलब्ध की गई है उसमें यह बात साफ है कि हमने चीन जनवादी गणतंत्र की प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अखंडता की चीन सरकार की चिंताओं का पूरी तरह से ध्यान रखा है। इस झापन की व्याख्या अपने-अपने तरीके से की जा सकती है। इस बारे में आपकी टिप्पणियों और सुझावों का स्वागत है।

इस अवसर पर मैं यूरोपिय संघ और संसद के अधिकारियों से निवेदन करना चाहता हूं कि वे अपने संपर्को का उपयोग करते हुए चीनी नेतृत्व को समझाने का थोड़ा प्रयास करें ताकि तिब्बती और चीनी, दोनों जनता के साझे हित के लिए तिब्बत मलसे का हल वार्ताओं के माध्यम से निकाला जाए।

अपने संधर्ष के साधन में हिंसा के उपयोग को मैंने दृढ़ता से खारिज कर दिया है, निशिचत रूप से हमें अधिकार है कि हम सभी उपलब्ध अन्य रानीतिक उपायों की तलाश करें। लोकतांत्रिक भावना के तहत ही मैंने तिब्बती जनता की स्थिति, तिब्बत मसले की स्थिति और तिब्बत आंदोलन की आगे की रणनीति पर विचार के लिए एक विशेष बैठाक बुलाने का आह्वान किया। यह बैठक 17 से 22 नवंबर, 2008 को धर्मशाला (भारत) में आयोजित हुई। हमारे प्रयासों पर चीनी नेतृत्व द्वारा कोई सकारात्मक पहल न होने की वजह से कई तिब्बती लोगों में यह धारणा पुष्ट हो गई है कि चीन सरकार किसी भी तरह के परस्पर स्वीकार्य़ हल के लिए इच्छुक ही नहीं है। कई तिब्बती नागरिकों का अब भी यह मानना है कि चीन सरकार तिब्बत का जबरन और पूरी तरह से चीन में विलय करना चाहती है। इसलिए ऐसे लोगों की मांग है कि तिब्बत की पूर्ण आजादी की मांग की जाए। कुछ अन्य लोगों का तर्क था कि तिब्बत के लोगों को आत्मनिर्धारण का अधिकार हो और वहां एक जनमत संग्रह कराया जाए।

इस प्रकार के विभिन्न मतों के बावजूद विशेष बैठक में आए प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर मुझे यह अधिकार सौंपा कि तिब्बत, चीन और पूरी दुनिया की वर्तमान हालत और वहां हो रहे बदलावों के मद्देनजर मैं सबसे अच्छा रास्ता अख्तियार करूं। बैठक में पूरी दुनिया के तिब्बती समुदाय के 600 नेताओं और प्रतिनिधियों के द्वारा आए सुझावों का मैं अध्ययन करूंगा। इसमें तिब्बत में रहने वाले अलग-अलग वर्गो के तिब्बतियों के भी विचार जानने में सफलता मिली है।

मैं लोकतंत्र का पूर्ण समर्थक हुं। इस वजह से ही मैंने निर्वासित तिब्बतियों को लगातार इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि वे लोकतांत्रिक प्राक्रियाओं का पालन करें। आज तिब्बती शरणार्थी समुदाय ऐसे कुछ ही शरणार्थी समुदायों में शामिल है जिन्होंने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को स्थापित किया है। साल 2001 में हमने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की दिशा में एक और महान कदम उठाया, जब निर्वासित तिब्बत सरकार के कशग (प्रधानमंत्री) का चुनाव जनता के मत से हुआ।

मैं हमेशा यह कहता रहा हूं कि आखिरकार तिब्बती जनता को ही तिब्बत का भविष्य तय करने में सक्षम होना चाहिए। जैसा कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने 7 दिसंबर 1950 को भारतीय संसद में कहा था, तिब्बत के बारे में अंतिम आवाज तिब्बती जनता की होनी चाहिए किसी और की नहीं।

तिब्बत के मसले के इतने आयाम और निहितार्थ हैं कि वे 60 लाख तिब्बतियों के भविष्य के अलावा भी प्रभाव रखते हैं। तिब्बत भौगोलिक रूप से भारत और चीन के बीच स्थित है। शताब्दियों तक तिब्बत धरती के दो सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देशों के अलग करने वाले एक शांतिपूर्ण बफर जोन के रूप में था। लेकिन तथाकथित तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के कुछ साल बाद ही 1962 में दुनिया ने दो एशियाई ताकतों के बीच पहली बार युद्ध होते देखा।

इससे यह बात साफ होती है कि तिब्बत के मसले के तत्काल और शांतिपूर्ण समाधान से ही एशिया के दो सबसे ताकतवर देशों के बीच हमेशा के लिए और वास्तविक भरोसा और मित्रता कायम की जा सकती है। तिब्बत का मसला वहां के नाजुक पर्यावरण से भी जुड़ा है, जिसके बारे में वैझानिकों का कहना है कि इसका प्रभाव एशिया के अधिकांश हिस्से में अरबों लोगों तक है। तिब्बत का पठार एशिया की कई महान नदियों का स्रोत है। ध्रुवों के बाहर पृथ्वी के सबसे बड़े बर्फ भंडार तिब्बत के ग्लेशियर ही हैं। कई पर्यावरणविद तो अब तिब्बत को तीसरा ध्रुव मानने लगे हैं। लेकिन वहां यदि इसी तरह से तापमान बढ़ता रहा तो अगले 15-20 साल में सिंधु नदी सूख सकती है। इसके अलावा तिब्बत की सांस्कृतिक विरासत बौद्ध धर्म के करूणा और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए इससे न सिर्फ 60 लाख तिब्बती लोगों बल्कि हिमालय, मंगोलिया और रूस में कालमिकिया एवं बरयात के लोगों का भी जुडाव़ है। इसमें चीनी भाइयों एवं बहनों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इन सबमें यह क्षमता है कि एक शांतिपूर्ण और सुव्यवस्थित दुनिया के निर्माण में योगदान दे सकें।

गुरुवार, 4 दिसम्बर, 2008


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