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मौन की संस्कृति को समाप्त करें

December 19, 2019

क्लाउडे अर्पि, dailypioneer.com

हाल ही में भारत में चीनी राजदूत सन वेइदांग ने घोषणा की कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच दूसरी अनौपचारिक शिखर वार्ता के सकारात्मक प्रभाव धीरे-धीरे दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि चीन क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए भारत के साथ रक्षा और सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देना चाहता है। यह घोषणा हालांकि तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती है। हालांकि उन्होंने कहा कि कश्मीर पर चीन की नीति ‘सुसंगत और स्पष्ट’ है। उधर, बीजिंग 21 दिसंबर को सीमा मुद्दे पर चर्चा करने के लिए भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों (एसआर) की बैठक में कश्मीर मुद्दे को उठाने की योजना बना रहा है।

इस बात में संदेह है कि भारतीय प्रतिनिधि अजीत डोभाल और चीनी प्रतिनिधि वांग यी के बीच वार्ता के दौरान कोई प्रगति हो सकती है। खासकर ऐसी स्थिति में जब चीन द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) से घाटी की स्थिति पर चर्चा करने का फिर से अनुरोध किया गया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि, ‘चीन पाकिस्तान के अनुरोध को प्रतिध्वनित करना चाहता है और परिषद से जम्मू और कश्मीर की स्थिति पर एक बयान जारी करने का अनुरोध करना चाहता है।‘ (फ्रांस के आग्रह पर यह बढ़ा भी, लेकिन बाद में प्रस्ताव गिर गया)।

इन परिस्थितियों में इस बात पर केवल विश्वास करना ही मुश्किल नहीं है कि चेन्नई वार्ता के प्रभाव सकारात्मक हैं, बल्कि उसके भारत के आंतरिक मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने जैसे हानि पहुंचाने वाले क्रियाकलापों पर भरोसा करना भी मुश्किल है। दुर्भाग्य से, अब तक कि भारतीय सरकारों ने भी चीन के इस दोगलेपन पर उचित प्रतिक्रिया कभी नहीं दी है।

तिब्बत को हिमालयी क्षेत्र के साथ उसके सदियों पुराने संबंधों के साथ ही हड़प लिया गया। 1950 के दशक के अंत में संबंधों में कमजोरी आ गई थी, जिसमें भारत की कोई गलती नहीं थी। इसने स्थानीय भारतीय सीमाई आबादी के लिए अविश्वसनीय कठिनाई पैदा की। मार्च 1959 में दलाई लामा के आगमन से पहले के वर्षों में तिब्बत पर कठोर चीनी कब्जे के कारण पारंपरिक व्यापार और तिब्बत और भारत के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक संपर्क धीरे-धीरे ध्वस्त हो गए। 1962 की शुरुआत में स्थिति इतनी खराब हो गई कि भारत को चीन और भारत के तिब्बत क्षेत्र में व्यापार और आवागमन पर समझौते को आगे बढ़ाने से इनकार करना पड़ा, जिसे पंचशील समझौते के नाम से जाना जाता था। इसकी समृद्ध प्रस्तावना के सिद्धांतों का चीन ने कभी सम्मान नहीं किया। हाल ही में मुझे नई दिल्ली में सिक्किम में राजनीतिक अधिकारी (पीओ) रहे अपा पंत ने तिब्बत से अक्तूबर 1960 में नई दिल्ली को भेजे ‘मासिक रिपोर्ट’ के बारे में बताया। उस समय चीन तेजी से पठार पर अपनी उपस्थिति को मजबूत कर रहा था और वहां भारतीय हितों को खारिज कर रहा था। उस समय की रिपोर्ट में कहा गया था कि, ‘तिब्बत में चीनियों के व्यापक स्तर पर पुनर्वास का कार्यक्रम शुरू हो गया है। ल्हासा में अफवाहें थी कि करीब ढाई लाख चीनी नागरिकों को निकट भविष्य में तिब्बत में लाया और बसाया जाएगा। फिलहाल ल्हासा और ग्यांत्से दोनों शहरों में चीनी आबादी काफी बढ़ गई है।‘

भारत के साथ पारंपरिक व्यापार को उत्तरोत्तर बंद कर दिया गया था। भारतीय सीमाओं के पास बुनियादी ढांचे को चीन द्वारा युद्ध-स्तर पर बनाया जा रहा था (संभवतः सीमा युद्ध की तैयारी के लिए, जो दो साल बाद शुरू हो गया था)। हालांकि, नई दिल्ली ने इसे ‘आश्चर्य के साथ’ लेने का नाटक किया। जबकि पंत की रिपोर्ट को पढ़कर कोई भी यह कह सकता था कि भारत सरकार के लिए दीवार पर लिखी इबारत साफ-साफ दिखाई दे रही थी।

रिपोर्ट में पंत ने कहा था कि तिब्बत में बड़ी संख्या में चीनी कैडर उतर रहे हैं। धीरे-धीरे पठार की जनसांख्यिकी बदल दी गई है। भारत और दुनिया को एक फितरत के सामने खड़ा कर दिया गया है। तिब्बत चीन का हो चुका है।

चीन की मुख्य भूमि से महिला कैडरों को भी लाया गया था। ल्हासा अब एक चीनी शहर की तरह दिखता है जहां तिब्बती अल्पमत में आ गए हैं। लामाओं को मठों से बाहर ले जाया गया है और उनसे मजदूरी करवाई जा रही है। चीनियों द्वारा मठों का इस्तेमाल सरकारी कार्यालयों के रूप में किया जा रहा है।‘

यदि अक्तूबर 1960 में यह स्थिति थी तो कोई कल्पना कर सकता है कि आज तिब्बत की राजधानी कैसी दीख रही होगी। रिपोर्ट आगे कहती है, ‘ल्हासा में रामोचे मठ अब यातायात पुलिस का मुख्यालय बन गया है, जबकि कुंडलिंग मठ, जो मार्च 1959 के तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह में क्षतिग्रस्त हो गया था (चीनी अतिक्रमण के खिलाफ विद्रोह के समय)। मरम्मत के बाद चीनी कैडरों के आवास के तौर पर इसका उपयोग किया जा रहा है। कश्मीरी मुसलमानों द्वारा खाली किए गए मकानों पर भी चीनी कैडरों ने कब्जा कर लिया है।‘

पंत ने दावा किया कि चीनियों ने अब प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। तिब्बत का भद्र समाज ‘सामूहिक शिविरों’ में डाल दिया गया है, सिवाय उन लोगों को छोड़कर, जिन्होंने मार्च 1959 से पहले चीनी कम्युनिस्टों के साथ अपना मेलजोल बढ़ा लिया था। इन मेलजोल रखनेवाले कुलीन वर्ग को शासन में आधिकारिक पद दिए गए और ल्हासा में उन्हें मोटरवाहनों में घूमते हुए देखा जा सकता है। ये लोग उस समय आलीशान जीवन जी रहे थे।

आश्चर्य की बात यह है कि नई दिल्ली ने इस दौरान पूरा मौन साध रखा था। उल्टे वह चीन के साथ सीमा पर एक मायावी समझौते पर बातचीत करने की कोशिश कर रहा था (59 साल बाद आज भी वही कर रहा है)। 1960 में ल्हासा में तिब्बतियों का चीनी पोशाक- ‘बंद कॉलर का कोट और पतलून था, जबकि पारंपरिक बाकू को छोड़ा जा रहा था। सिले-सिलाए वस्त्रों में परिवर्तन यह कहकर किए जा रहे थे कि वे कपड़े और उनकी सामग्री किफायती हैं।‘

बड़ी संख्या में 12 वर्ष से अधिक उम्र के तिब्बती बच्चों को शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए चीन भेज दिया गया, जो वहां तीन से पांच साल तक रखे जाते थे। इन तिब्बती बच्चों को व्यवस्थित रूप से प्रेरित किया जाता था।

पूर्व में भारतीय और नेपाली व्यापारियों द्वारा किए गए सीमा व्यापार को धीरे-धीरे चीन द्वारा प्रतिबंधात्मक नीतियों और भारी कराधान के माध्यम से समाप्त कर दिया गया था। पंत लिखते हैं, ‘कश्मीरी मुसलमानों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया था। हालांकि बड़ी संख्या में कश्मीरी मुसलमान पहले ही तिब्बत छोड़ चुके थे या भारत की ओर जा रहे थे।‘ लेकिन नई दिल्ली लगातार मौन साधे हुई थी।

इसी समय, चीन से सैनिक आते रहे। ‘ल्हासा और चीनी मुख्य भूमि के बीच प्रतिदिन लगभग 60 वाहनों की आवाजाही बनी रही। नई ल्हासा-ग्योंत्से मार्ग पर सैनिकों की काफी आवाजाही की खबरें आती रहीं। ये सभी टुकड़ियां मुख्य भूमि से आती दिखाई देती थीं। पंत अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, ‘उनमें से लगभग 10,000 लोग कुछ दिनों के दौरान ही ग्यात्से से गुजरे। संदेह इस बात का था कि ये सैनिक भूटान की ओर जा रहे हैं। पंत रिपोर्ट में कहते हैं, ‘कई नई सड़कें उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी (आज का अरुणाचल प्रदेश) में तवांग तक बनाई जा रही हैं। चीन सीमा की ओर अग्रसर था, लेकिन शायद चीनी भावनाओं को आहत नहीं करने के लिए भारत मौन साध रहा था। आज जब चीन लगातार भारतीय हितों और भावनाओं को आहत करता जा रहा है, तो क्या अब भी भारत को चुप्पी साधे रखना चाहिए? भारत अगर ऐसा करता है तो यह केवल एक नई आपदा का कारण बन सकता है।

(लेखक भारत-चीन संबंधों के विशेषज्ञ हैं)


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