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तिब्बती संघर्ष को संघ का सुर

March 13, 2013

लेख, आर एल फ्रांसिस

who_am_i_773062670तिब्बती जनता पर चीन के दमनचक्र के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तिब्बतियों के संघर्ष को स्वर देना शुरू कर दिया है। इसकी एक झलक राष्ट्रीय जनक्रांति की 54 वर्षगांठ पर दिल्ली में चीन के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन में देखने को मिली। हजारों की संख्या में उपस्थित तिब्बतियों और भारतीय नागरिकों को सम्बोधित करते हुए संघ की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार ने आह्रवान किया कि हर भारतीय को तिब्बती जनता की पीड़ा और तिब्बत के साथ अपने गहरे सांस्कृतिक-धार्मिक रिश्तों को याद करना चाहिए।

भारत और तिब्बत के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक रिश्ते हजार वर्ष से भी पुराने है। दरअसल तिब्बत भारतीय सांस्कृतिक विरासत के एक विस्तार की तरह है, सातवीं सदी में जब बौद्ध धर्म यहां आया तो भारत के साथ इसके रिश्तों को नई ऊंचाई मिली। संघ नेता इन्द्रेश कुमार मानते है कि तिब्बत का मुद्दा तिब्बती जनता के दमनचक्र के साथ साथ भारत की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। चीन ने तिब्बत को व्यापक सैनिक क्षेत्र में बदल दिया है जो एक शांतिपूर्ण क्षेत्र था। तिब्बत के सैन्यकरण के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में तनाव बढ़ गया है। चीनी विस्तारवादी नीति केवल तिब्बत को हड़प कर संतुष्ट नहीं हुई है। अब उसकी नजरें अरुणाचल प्रदेश और कई सीमावर्ती क्षेत्रों पर भी टिकी हुई है। चीन के खतरनाक इरादों से यदि हमें अपने देश की रक्षा करनी है तो हमें तिब्बती जनता का संकट के समय साथ देना होगा। क्योंकि तिब्बत का अस्तित्व भारत के लिए सर्वदा हितकर है।

पिछले कुछ समय से चीनी सरकार का दमनचक्र तिब्बती जनता पर तेज होता जा रहा है। राष्ट्रीय जनक्रांति की 54 वर्षगांठ पर तिब्बती प्रशासन द्वारा आत्मदाह का रास्ता अपनाने वालों से इसे त्यागने की अपील की गई है। दरअसल चीन के दमनचक्र के खिलाफ पिछले तीन सालो में एक सौ तिब्बती मौत को गले लगा चुके है। यह वे लोग है जिन्होंने किसी को कोई नुकसान नही पहुंचाया। पर खुद को नुकसान पहुंचाने का रास्ता अपनाया ताकि दुनियां का ध्यान तिब्बत में चीन के दमनचक्र की ओर आकर्षित कर सकें। पिछले छःह दशकों से शांति का गीत गाने पर भी उनकी कहीं सुनवाई न होने पर आखिर उनके पास और रास्ता भी क्या हैं?

तिब्बत दुनिया की अनदेखी का शिकार होता रहा है। संयुक्त राष्ट्र से उसे कोई खास मदद नही मिल सकी, अमेरिका तिब्बत की जनता के मानवाधिकारों और धार्मिक आजादी का समर्थन तो करता है लेकिन अपने एजेंडे में किसी तरह की कार्यवाही को रखने के लिए तैयार नहीं है। ब्रिटेन और भारत दोनों की सोच यह है कि संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव एक बयान तक सीमित होना चाहिए जिसमें दोनों पक्षों से यह आह्रवान किया जाए कि वे अपने मतभेद शांतिपूर्ण तरीके से हल करें। इन दोनों देशों को डर है कि कड़े प्रस्ताव (जैसे चीन से यह कहने कि वह तिब्बत से अपनी सेनाएं हटाए और यथास्थिति बहाल करें) को चीन नजरअंदाज कर सकता है और इससे संयुक्त राष्ट्र अपनी प्रतिष्ठा खो देगा।

दुनियां की बेरुखी ने तिब्बतयों को निराश किया है तिब्बत का नुकसान निश्चित रुप से तिब्बती जनता का नुकसान है। दुनियां में शक्तिशाली और शांतिप्रिय देशों और संगठनों की कोई कमी नही है। लेकिन कोई भी तिब्बत के साथ चीन का दमनचक्र तोड़ने के लिए आगे नही आया। यह स्थिति भारत की भी है। बड़े स्तर पर तिब्बतियों के आत्मदाह को भारतीय मीडिया में भी सही तरीके से नही रखा गया। तिब्बत में आत्मदाह करने वाले अधिक्तर युवा है। चीन खुश है कि दुनियां में तिब्बत को लेकर सन्नाटा छाया हुआ है। यह सुखःद है कि इस सन्नाटे को तोड़ने का काम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कर रहा है।

तिब्बत पर अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए चीन ने अपनी मुख्य भूमि को तिब्बत की राजधानी ल्हासा से रेलमार्ग से जोड़ दिया है। इसके बाद एक ओर जहां तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट तेज हुई है वहीं इस संभावना को भी बल मिला है कि चीन तिब्बत की जलधराओं को मोड़ सकता है जिससे ज्यादातर एशिया में नदियां सूख सकती है। चीन की सरकार अपने सूखे क्षेत्रों की सिंचाई के लिए तिब्बत की विशाल नदियों को उतर की ओर मोड़ने की कोशिश कर रही है। चीन अब तक का सबसे बड़ा बांध बनाने के लिए 728 मिलीयन डॉलर की एक परियोजना पर काम कर रहा है जिसके 2016 तक पूरे होने की उम्मीद है। चीन के इस रवैये को देखकर तो यही लगता है कि अब तिब्बत पूरे एशिया की समास्या है और इससे मुँह चुराने का परिणाम एशिया के लोगों के लिए दुखःद होगा।

निर्वासित तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. लोबसांग सांग्ये ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से आग्रह किया है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त को चीन में प्रवेश की चीन से इजाजत दिलाए। दरअसल चीन सरकार के लिए तिब्बत कोई संवैधानिक या सांस्थानिक समास्या नही है। पीआरसी के संविधान की धारा 31 के अनुसार चीन ने हांगकांग व मकाओं के लिए एक देश दो विधान का अलग सांस्थानिक तंत्र तैयार किया है परन्तु जब बात तिब्बत की आती है तो चीनी नेतृत्व ने न तो उपलब्ध संवैधानिक तंत्र को लागू किया और न ही शांतिपूर्ण समाधान के लिए राजनीतिक इच्छा दिखाई। तिब्बतियों को आजादी और परमपावन दलाई लामा की तिब्बत में वापसी तिब्बत के भीतर और बाहर रहने वाले तिब्बतियों का सपना है। तिब्बत मामलों के जानकार विजय क्रांति मानते है कि विश्व बिरादरी का रुख तिब्बत को लेकर साफ नही है जहां सरकारें इसके प्रति उदासीन है वहीं बहारी देशों की जनता तिब्बतियों के प्रति सच्ची हमदर्दी रखती है। अब यह दुनिया को तय करना है कि वह तिब्बती जनता के अधिकारों की अनदेखी करे या इस संघर्ष को आगे बढ़ाए।


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