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तिब्‍बत का भला करना है तो तिब्‍बतियों को क्षेत्रवाद से मुक्‍त होना होगा: पेन्‍पा त्‍सेरिंग

November 27, 2021

Written by चंद्रभूषण | Edited by दीपक वर्मा | नवभारत टाइम्सUpdated: 27 Nov 2021

कुछ लोग अपने क्षेत्र से आगे बढ़कर सोचने को तैयार ही नहीं हैं। जबकि मेरा कहना है कि तिब्बत से बाहर निकल आने के बाद हम अपने क्षेत्र के लिए, अम्दो, खम और ऊ-त्सांग के लिए भला क्या कर सकते हैं? हमारे लक्ष्य को पूरा करने में क्षेत्रवाद बाधक साबित हो सकता है: पेन्पा त्सेरिंग

तिब्बत का मसला नए सिरे से दुनिया की चर्चा में है। निर्वासित तिब्बतियों की सरकार सेंट्रल तिबतन एडमिनिस्ट्रेशन (सीटीए) दलाई लामा के आध्यात्मिक नेतृत्व में तिब्बत की स्वायत्तता का प्रश्न चीन के सामने उठाती आ रही है। इस साल हुए सीटीए के चुनाव में राष्ट्रपति (सिक्यांग) चुने गए पेन्पा त्सेरिंग फिलहाल इस संघर्ष की अगुआई कर रहे हैं। लेकिन इस क्रम में उन्हें एक भीतरी समस्या का सामना भी करना पड़ रहा है। उनसे बातचीत की चंद्रभूषण ने। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश :

निर्वासित तिब्बती सरकार का नेतृत्व संभाले आपको छह महीने हो चुके हैं। यह समय ज्यादा नहीं है, फिर भी इस दौरान ली गई अपनी कुछ बड़ी पहलकदमियों के बारे में बताएं…

वॉलंटरी तिब्बत एडवोकेसी ग्रुप (वी-टैग) इस दौरान हमारा सबसे बड़ा इनिशिएटिव है। इसके जरिए दुनिया भर में बसे हुए और विभिन्न देशों की नागरिकता ले चुके तिब्बतियों को प्रतिरोध का एक मंच दिया गया है। ‘तिबतंस फॉर तिब्बत’ और ‘तिब्बत इज द रिस्पांसिबिलिटी ऑफ तिबतंस’ टैगलाइन के जरिए वे तिब्बत के पक्ष में अपनी आवाज उठा सकते हैं, और दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर केंद्रित कर सकते है। अभी दुनिया के कुल 12 देशों में ही तिब्बत ऑफिस काम कर रहे हैं। परम पावन दलाई लामा अभी कम ही यात्रा कर पाते हैं, लेकिन हमारा काम बढ़ रहा है। आगे बढ़ना है तो सभी को हाथ बंटाना होगा।

अरसे बाद अमेरिका तिब्बत को लेकर सक्रिय नजर आ रहा है। क्या कारण है?

तिब्बत की दावेदारी में हमेशा से अमेरिका की प्रमुख भूमिका रहती आई है। 2002 में उसने तिब्बत एक्ट बनाया, फिर 2020 में दलाई लामा के पुनर्जन्म को लेकर एक स्पष्ट नीति घोषित की। अभी वहां एक अंडर-सेक्रेटरी, बिहार मूल की उजरा जेया को तिब्बत और मानवाधिकार संबंधी अन्य मामलों का प्रभारी बनाया गया है। इससे हमें अपनी बातें कई जगह नहीं पहुंचानी होंगी। अमेरिका के संघीय सरकारी ढांचे में एक तिब्बत डेस्क होगी, जहां तक बात पहुंच जाना काफी रहेगा।

आपके चुनाव के समय लिखे गए एक लेख में मैंने दोनों उम्मीदवारों के बीच तीखे टकराव का जिक्र किया था। क्या वे तनाव अब समाप्त हो गए हैं? सरकार सामान्य रूप से अपना कामकाज करने लगी है?

अभी कहां? अब तक कुल तीन ही मंत्रियों के नाम पर मैं संसद की मोहर लगवा पाया हूं। कई सांसद मेरे प्रस्तावों के विरोध में खड़े हैं। मेरा कहना है कि आप विरोध करें, ठीक है। प्रस्ताव गिरा दें, यह आपका अधिकार है। लेकिन वोटिंग के समय संसद में ही न रहें, कोरम ही न पूरा होने दें, इसमें कौन सी समझदारी है? मैंने भी मान लिया है कि मुझे अपना सारा ध्यान काम पर केंद्रित रखना चाहिए। मैंने अच्छा प्रशासन दिया है। छह महीने में ही इतना काम कर दिया है, जिसमें औरों को कई साल लग जाते हैं।

संसद में आपके प्रस्तावों का इतना तीखा विरोध होने का कारण क्या है?

सीधे तौर पर कहूं तो ‘क्षेत्रवाद’। कुछ लोग अपने क्षेत्र से आगे बढ़कर सोचने को तैयार ही नहीं हैं। जबकि मेरा कहना है कि तिब्बत से बाहर निकल आने के बाद हम अपने क्षेत्र के लिए, अम्दो, खम और ऊ-त्सांग के लिए भला क्या कर सकते हैं? हमारे लक्ष्य को पूरा करने में क्षेत्रवाद बाधक साबित हो सकता है। इसलिए क्षेत्रवाद से बाहर निकल कर आगे बढ़ने के अलावा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है।

आखिर कौन लोग हैं जो इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे?

यह केवल एक क्षेत्र, खम से जुड़ा मामला है। संयोग ऐसा कि मौजूदा संसद में लगभग आधे लोग वहीं से आ गए हैं। खम क्षेत्र के 10 प्रतिनिधियों के अलावा पंथों का प्रतिनिधित्व करने वाले 10 के 10 और विदेशी प्रतिनिधियों में से भी दो-तीन लोग वहां से आते हैं। इस तरह कुल 45 में से 22 प्रतिनिधि खम से ही हो गए हैं। इसी कारण ऐसी समस्या बढ गई।

क्षेत्रवाद के उभार का कारण क्या है? दलाई लामा जी का पृष्ठभूमि में जाना?

ऐसा नहीं है। क्षेत्रवाद प्रवासी तिब्बती राजनीति में हमेशा से मौजूद था, अभी वह सतह पर आ गया है। सातवें दलाई लामा के आगमन से पहले चीन ने तिब्बत में जो फौज भेजी थी वह खम के रास्ते ही आई थी। तभी से खम वाले कभी ल्हासा को राजस्व देते थे, कभी पेइचिंग को। इस क्रम में वे स्वयं को स्वायत्त मानने लगे और यह सोच तिब्बत से बाहर आकर भी नहीं छोड़ी। वे मानते हैं कि सीटीए में उनकी ही सत्ता चलनी चाहिए।

तिब्बती सरदारों का टकराव अतीत में दलाई लामा की आध्यात्मिक सत्ता से नियंत्रित होता रहा है। कल को चौदहवें दलाई लामा की विदाई और पंद्रहवें के वयस्क होने के बीच जब दशकों का फासला सामने आएगा, तो उस आध्यात्मिक शून्य में ऐसे टकरावों का समाधान कैसे होगा?

ऐसा कोई शून्य नहीं आने वाला। तिब्बती समुदाय में साक्या गोंग्मा रिनपोछे का बहुत सम्मान है। परम पावन दलाई लामा अपनी हर सार्वजनिक उपस्थिति में उन्हें अपने बगल का आसन देते हैं। विविध पंथों के महापुरुषों ने समय-समय पर तिब्बत का आध्यात्मिक नेतृत्व संभाला है। उनका गेलुग पंथ से आना जरूरी नहीं है। परम पावन की जगह तो कोई नहीं ले पाएगा, लेकिन आध्यात्मिक शून्य जैसी समस्या हमारे सामने कभी नहीं आने वाली। रही बात पॉलिटिकल मैच्योरिटी की, तो तिब्बती नेताओं को यह क्षमता खुद ही हासिल करनी होगी। इस जवाबदेही से चौदहवें दलाई लामा स्वयं को कब का पीछे खींच चुके हैं।


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