
धर्मशाला। कल रात भर हो रही बारिश जब आज सुबह थमी, तब परम पावन दलाई लामा अपने निवास के द्वार से निकलकर प्रांगण से होते हुए मुख्य तिब्बती मंदिर- सुगलागखांग की ओर चल पड़े। प्रार्थना करने वालों के प्रतिनिधियों में नेपाल के शांग गादेन चोखोरलिंग मठ, चात्रेंग समुदाय और फारी समुदाय के समूह ने उनका साथ दिया। इनमें यांगसी रिनपोछे और लोबसंग न्यांदक शामिल थे। परम पावन ने मुस्कुराते हुए लगभग ५००० लोगों की भीड़ को हाथ हिलाकर अभिवादन किया। ताशी शोल्पा कलाकारों ने उनके स्वागत में नृत्य और गीत प्रस्तुत किए।
लिफ्ट से मंदिर के तल तक पहुंचने के बाद परम पावन ने सभा में उपस्थित सदस्यों पर रुक कर एक नजर डाली और हाथ हिलाकर उनका अभिवादन किया। इसके बाद उन्होंने इस महीने किए जाने वाले कालचक्र अनुष्ठान के लिए वहां बनाए जा रहे रेत मंडल को देखने के लिए कालचक्र मंदिर में कदम रखा। जब परम पावन ने मंदिर में सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण कर लिया तो प्रार्थना शुरू हुई। आज का समारोह महान पांचवें दलाई लामा द्वारा ‘अमितायुस अनुष्ठान पर आधारित सार (अमरता का) प्रदान करने की विधि’ पर आधारित था। इसकी अध्यक्षता आदरणीय समदोंग रिनपोछे ने की। उनके दाईं ओर ग्यूमे मठ के महंथ विराजित थे, जबकि उनकी बाईं ओर शांग गादेन चोखोरलिंग मठ के महंथ, ड्रोमो गेशे रिनपोछे के युवा अवतार गेशे ल्हुंडुप सोपा और से-ग्यू मठ के पूर्व महंथ विराजमान थे।

अमितायुस अनुष्ठान में इस बात को दोहराया गया कि, ‘समय आ गया है, कृपया अमर जीवन की आध्यात्मिक सिद्धि प्रदान करें।’ रेशमी ध्वज के साथ दीर्घायु बाण को फहराने के बाद समदोंग रिनपोछे ने इसे परम पावन को भेंट किया। दिलगो खेंत्से रिनपोछे के अनुरोध पर परम पावन द्वारा रचित दीर्घायु के लिए एकल छंद प्रार्थना के रूप में एक बड़ा अनुष्ठान केक चढ़ाया गया।
ब्रह्मांड को दर्शाते हुए एक मंडल, मन-कर्म-वचन का चित्रण करती हुई प्रतिमा, एक शास्त्र और एक चोर्टेन भी परम पावन को भेंट किया गया। इसमें उनसे युगों-युगों तक हमारे बीच रहने और धर्म चक्र को प्रवर्तित करते रहने का अनुरोध किया गया। इसके बाद दीर्घायु का अमृत, दीर्घायु की गोलियां, आठ शुभ प्रतीक, सात शाही प्रतीक और आठ शुभ पदार्थों का प्रसाद चढ़ाया गया।
जामयांग खेंत्से चोकी लोद्रो द्वारा परम पावन की दीर्घायु प्रार्थना और उनके दो शिक्षकों द्वारा रचित प्रार्थना का पाठ किया गया। शांग गादेन चोखोरलिंग मठ के महंथ ने धन्यवाद मंडल पेश की। समारोह का समापन ‘बुद्ध अमितायुस के लिए प्रार्थना’, ‘शिक्षा के उत्कर्ष के लिए प्रार्थना’ और ‘शुभता के छंद’ के पाठ के साथ हुआ।

परम पावन ने समारोह में आए अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘तो, आज यहाँ, शांग गादेन चोखोरलिंग मठ के सदस्य, चत्रेंग समुदाय का एक समूह और फारी समुदाय ने मेरे लंबे जीवन के लिए प्रार्थनाएं की हैं। आपकी निष्ठा और ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं है। मैं आपको धन्यवाद देता हूं।
‘मेरा जन्म अमदो प्रांत के कुंबुम में हुआ था। फिर मैं ल्हासा आया। चूंकि मेरे पास दलाई लामा की उपाधि है, मैं शिक्षा और प्राणियों के कल्याण में सकारात्मक योगदान देने में सक्षम हूं। चीनी लोग मुझसे सावधान थे, लेकिन फिर मैं भारत में निर्वासित हो गया। इस महान भूमि में हर जगह, उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक, हज़ारों लोग नियमित रूप से मुझसे मिलने आते हैं। भारत के लोग, चाहे वे बौद्ध धर्म में आस्था रखते हों या नहीं, मेरे काम की सराहना करते हैं। वे मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि मैं जितना लंबा जीवन जीऊंगा, मैं उतनी ही बेहतर तरीके से संवेदनशील प्राणियों और धर्म की सेवा कर पाऊंगा।’
‘पूरे भारत में लोगों के साथ मेरे अच्छे और मजबूत संबंध हैं। चीन में बौद्ध धर्म जोर पकड़ रहा है और मुझे लगता है कि मैं वहां भी बुद्ध के उपदेशों को फैलाने में कुछ योगदान दे सकूंगा। मुझे उम्मीद है कि मैं बुद्ध के उपदेशों को फैला कर लोगों की मदद कर पाऊंगा।’

“एक तिब्बती के रूप में जन्म लेने और ल्हामो लात्सो झील की सतह पर मिले संकेतों के अनुसार दलाई लामा के रूप में पहचाने जाने के कारण मैं बौद्ध धर्म की सेवा करने में सक्षम हूं। मुझे विश्वास है कि मैं कई और दशकों तक धर्म की सेवा कर पाऊंगा और बुद्ध के उपकारों का ऋण चुका पाऊंगा। मैंने अब तक अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है।’
‘मैं सिलिंग से आया और दलाई लामा की उपाधि धारण कर ल्हासा पहुंचा। जब मैं ल्हासा में था और सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा था तो मेरा अन्य लोगों से ज्यादा संपर्क नहीं था। लेकिन मैंने अध्ययन किया और बाद में तीन महान शिक्षण केंद्रों- सेरा, ड्रेपुंग और गंडेन में परीक्षाएं दीं। मैं महान प्रार्थना महोत्सव के दौरान ल्हासा के जोखांग में अपनी अंतिम परीक्षा देने के लिए बैठा। मैं जो कर सकता था, किया और अपनी पूरी क्षमता से अध्ययन किया। मेरे सबसे महत्वपूर्ण शिक्षकों में से एक मेरे वाद-विवाद सहायक न्गोड्रुप सोगनी थे जो मेरे प्रति बहुत दयालु थे। उनके लिए मुझे बस इतना ही कहना है- ताशी देलेक।’
अपने संबोधन के बाद जब परम पावन मंदिर से लिफ्ट तक गए और फिर प्रांगण से गुजरे, तो रास्ते में खड़े शुभचिंतक परम पावन की नज़र खुद पर पड़ते ही खुशी से झूम उठे। जब उन्होंने उन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन किया, उनके चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान उभर आई।