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करुणा और अहिंसा

August 18, 2021

परम पावन दलाई लामा ऑनलाइन प्रवचन के दौरान

dalailama.com

१८ अगस्त, २०२१

थेकछेन छोलिंग, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत। १८ अगस्त की सुबह ‘जो यंग ओके’ ने दक्षिण कोरिया के लबसम शेडुप लिंग धर्म केंद्र की ओर से आयोजित कार्यक्रम का परिचय दिया और परम पावन दलाई लामा से इस कार्यक्रम में वर्चुअल माध्यम से जुड़े श्रोताओं को संबोधित करने का अनुरोध किया। अपना संबोधन शुरू करने से पहले परम पावन ने बौद्ध धर्म के बारे में प्रवचन देने का अवसर प्रदान करने के लिए आयोजकों के प्रति धन्यवाद ज्ञार्पित किया।

उन्होंने कहा, ‘तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना नालंदा परंपरा के आचार्य शांतरक्षित ने की थी। हम भारत से प्राप्त त्रिपिटकों का अध्ययन करते हैं और तीन प्रशिक्षणों की साधना में संलग्न होते हैं। यही वह प्रक्रिया है जिसका मैंने एक भिक्षु के रूप में भी पालन किया। मैंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया, इससे मैंने जो समझा उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश की और ध्यान के द्वारा इसके अनुभव को प्राप्त किया। आज मैं जो समझाने जा रहा हूं वह उस अनुभव पर आधारित है।’

उन्होंने कहा, ‘मैं सभी धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता हूं। हमारे पास अलग-अलग अनुयायियों की योग्यता के अनुकूल अलग-अलग विचार और दार्शनिक दृष्टिकोण हैं। बुद्ध ने अपने शिष्यों की जरूरतों के अनुसार अलग-अलग व्याख्याएं भी दी हैं। हालांकि, ये सभी विभिन्न परंपराएं प्रेम, करुणा और अहिंसा को आगे बढ़ाने के महत्व पर जोर देती हैं। ऐतिहासिक रूप से कुछ लोग धर्म के नाम पर लड़े और मारे भी गए, लेकिन उस तरह का व्यवहार अब अतीत में छोड़ दिया जाना चाहिए।’

दुनिया की सभी महान धार्मिक परंपराएं भारत में विकसित हुई हैं और परंपरागत रूप से एक-दूसरे को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यह एक ऐसा शिष्टाचार है, जिसे दुनिया के अन्य हिस्सों में भी अपनाया जा सकता है।

परम पावन ने कहा कि, ‘बुद्ध अधर्म को पानी से नहीं धोते हैं, न ही वे अपने हाथों से प्राणियों के कष्टों को दूर करते हैं, न ही वे अपनी अनुभवों को दूसरों पर थोपते हैं। वे सत्त्व के सत्य की शिक्षा देकर (प्राणियों) को मुक्त करते हैं।

बुद्ध पहले बोधिचित्त के जागरूक मन को जाग्रत करते हैं। दो समुच्चय (योग्यता और ज्ञान के) को प्राप्त करने के बाद वे ज्ञान प्राप्त करते हैं और फिर अपने अनुभव को अन्य भव्य प्राणियों के साथ साझा करते हैं। यह बात कहने का मेरा आधार यह है कि बुद्ध ने कहा, ‘आप अपना स्वामी खुद हैं।’ आप धर्म की साधना करना चाहते हैं या नहीं, यह आप पर ही निर्भर करता है।

दुख का मूल हमारा चंचल मन है, इसलिए मन को नियंत्रित करने के लिए धर्म की साधना जरूरी है। बुद्ध ने कहा है कि करुणामय व्यक्ति कई माध्यमों से प्राणियों का प्रबोधन करते हैं। चूंकि प्राणी चीजों की प्रकृति से अनभिज्ञ हैं, इसलिए उन्होंने शून्यवाद का उपदेश दिया जो शांत और अजन्मा है। अपने दशकों के धर्म के अध्ययन के दौरान जो मैंने समझा उसे अपने जीवन में अपनाया और इससे मैंने अपने जीवन में परिवर्तन का अनुभव किया है।

मन को प्रशिक्षित करके प्रतिकूलताओं से पार पाना संभव है। हम नैतिकता की साधना के द्वारा अपने मन की एकाग्रता को विकसित करते हैं और फिर उस एकाग्र मन से देखते हैं कि वस्तु की वास्तविक स्थिति क्या है। इसके परिणामस्वरूप विकसित हुई अंतर्दृष्टि से हम पथ पर अग्रसर होते हैं।

परम पावन ने बताया कि बौद्ध धर्म का मूल आधार चार आर्य सत्य हैं। बुद्ध ने दुख और दुख के कारण के बारे में उपदेश दिया है। लेकिन उन्होंने यह भी बताया है कि दुख और उसके कारण को दूर किया जा सकता है; उससे मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने शून्यवाद का उपदेश दिया। ‘हृदय सूत्र’ में बताया गया है कि ‘आत्मा शून्य है; शून्यता ही आत्मा है। शून्यता आत्मा से भिन्न नहीं है; आत्मा भी शून्यता से भिन्न नहीं है।

इस विषय पर श्रोताओं की ओर से किए गए एक ही तरह के कई प्रश्नों के उत्तर में परम पावन ने इस बात से सहमति जताई की कि मानवता आज कोविड महामारी और जलवायु परिवर्तन सहित कई संकटों का सामना कर रही है। फिर भी उन्होंने कहा कि मनुष्य के रूप में हमें अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अपनी अनूठी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। उन्होंने रेखांकित किया कि तिब्बत छोड़ने और शरणार्थी बनने के बाद से उन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। लेकिन इन कठिनाइयों ने वास्तव में उन्हें धर्म की साधना में रचनात्मक योगदान दिया है।

एक प्रश्न आया कि आचार्य शांतिदेव द्वारा रचित ‘बोधिसत्व के मार्ग में प्रवेश (इंटरिंग इनटू द वे ऑफ अ बोधिसत्व)’ में दिए गए सुझावों के अनुरूप बच्चों को अपने माता-पिता के क्रोध का सामना कैसे करना चाहिए। इसका उत्तर देते हुए परम पावन ने बताया कि इस पुस्तक के अध्याय- छह में क्रोध के नुकसान और इससे निपटने के बारे में स्पष्ट तौर पर मार्गदर्शन किया गया है। जबकि अध्याय आठ में परोपकारी दृष्टिकोण को विकसित करने से होनेवाले लाभों के बारे में वर्णन किया गया है। इन सबका एक ही लक्ष्य है- मन की एकाग्रता की स्थिति पैदा करना। क्रोध पर काबू पाने और अपने में करुणा विकसित करने के बारे में सीखना भावनात्मक स्वच्छता की साधना का हिस्सा है।

एक महिला ने आम जीवन में शून्यता के अर्थ जानने के लिए प्रश्न किया जो कि क्वांटम यांत्रिकी दृष्टिकोण के सारांश के तौर पर मददगार हो सकता है। परम पावन ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि क्वांटम फीजिक्स के विद्वानों का कहना है कि चीजों का अपनी तरफ से वस्तुनिष्ठ अस्तित्व होता है, लेकिन प्रयोग के दौरान वे उस तरह से मौजूद नहीं पाए जाते हैं। बौद्ध मत में चीजें अंतर्निहित अस्तित्व से रिक्त हैं। इस जटिल दृष्टिकोण को स्वीकार करना कठिन है। इसका संकेत चंद्रकीर्ति द्वारा दर्शन के अलग-अलग पक्षों के जाने-माने आचार्योँ- वसुबंधु, दिग्नाग और धर्मकीर्ति की आलोचनाओं में मिल जाता है। इन आचार्यों ने नागार्जुन के मत को अस्वीकार कर दिया था।

एक युवक जो विश्लेषण में शामिल होने और अपने शिक्षक से अलग निष्कर्ष पर आने के बारे में चिंतित था, उससे परम पावन ने कहा कि जब तक उसके निष्कर्षों से शिक्षक के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचती है, तब तक शिक्षक से असहमत होना ठीक है। परम पावन ने उसे सुझाव दिया कि अपने निष्कर्षों पर मित्रों के साथ चर्चा करना उसके लिए बहुत शिक्षाप्रद हो सकता है।

यह पूछे जाने पर कि छात्रों को महान भारतीय बौद्ध धर्मग्रंथों और ‘संकलित विषयों’ का अध्ययन के लिए किस तरह से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, परम पावन ने श्रोताओं को याद दिलाया कि उन्होंने बौद्ध दर्शन के अध्ययन के पहले चरण में बिना किसी तर्क-वितर्क के चार आर्य सत्य और विनय पिटक की शिक्षाओं को ग्रहण करने की रूपरेखा तैयार की थी। अध्ययन के दूसरे चरण के दौरान उन्होंने शून्यवाद के गहन दृष्टिकोण और बोधिसत्व के व्यापक आचरण का अध्ययन करने का सुझाव दिया। ये दोनों ही विषय तर्क की कसौटी पर दृढ़ता से खरे उतरते हैं।

इसके बाद ‘४०० श्लोक’ और ‘एंटरिंग इन द मिडिल वे (मध्यम मार्ग प्रवेश)’ के साथ-साथ ‘कनेक्टेड टॉपिक्स (संग्रहित विषय)’ का अध्ययन करना समीचीन होता है जो शिक्षा के अतुल्य शक्तिशाली तंत्र को विकसित करता है। बौद्ध अध्ययन के इस पाठ्यक्रम को तिब्बत में एक हजार से अधिक वर्षों तक बनाए रखा गया था और अब इसे दक्षिण भारत में फिर से स्थापित मठों के शिक्षा केंद्रों में दोहराया और विकसित किया गया है। तिब्बत में तो छात्र चालीस साल तक अध्ययन करने के बाद स्नातक हो पाते थे। आज, कई छात्र बीस वर्षों के अध्ययन के बाद ही स्नातक हो जाते हैं, लेकिन पाठ्यक्रम अब भी व्यापक और गंभीर बना हुआ है।

लबसम शेडुप लिंग मठ के महंत गेशे (तिब्बती शिक्षा तंत्र में स्नातक) तेनज़िन नामखड़ ने परम पावन को उनके गूढ़ प्रवचन के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि वर्चुअल माध्यम से उपस्थित हुए छात्रगण ने इस प्रवचन से जितना कुछ सीखा- समझा है, उसे वे अपने जीवन में उतारने की पूरी कोशिश करेंगे। उन्होंने परम पावन को सूचित किया कि शृंखला का पहला खंड ‘साइंस एंड फिलॉसफी इन द इंडियन बुद्धिस्ट क्लासिक्स (भारतीय बौद्ध शास्त्रों में विज्ञान और दर्शन)’ का कोरियाई भाषा में अनुवाद हो गया है और वर्तमान में यह छपाई की प्रक्रिया में है। इसके बाद उन्होंने इस कार्यक्रम को समाप्त करने की घोषणा की और उम्मीद जताई कि परम पावन कोरिया की यात्रा करेंगे।

परम पावन ने अपने जवाब में कहा कि जब उन्होंने इस केंद्र को लबसम शेडुप लिंग नाम दिया तो उन्होंने आशा व्यक्त की कि सदस्य तीनों उच्च प्रशिक्षणों को प्राप्त करने के लिए अध्ययन, चिंतन और ध्यान के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण करने में सक्षम होंगे। परम पावन ने अपने श्रोताओं से कहा कि इसका उद्देश्य सम्यक्त्व के मार्ग पर प्रगति करना है और  वे निरंतर प्रार्थना करते रहें कि वे ऐसा करने में सक्षम होंगे। अंत में उन्होंने उल्लेख किया कि उन्हें विश्वास है कि जिन्होंने इस जीवन में उनके साथ संबंध बनाया है, वे भविष्य में उस संबंध को नवीकृत करने में सक्षम होंगे।


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